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________________ महायानी आदर्श और जैनधर्म 97 अलौकिक प्रादर्शों की पृष्ठभूमि में भागवत्धर्म के प्रभाव को स्वीकारा जा सकता है। क्योंकि प्रारम्भिक बौद्धधर्म में इनका कोई स्थान नहीं था। ___महायानो बौद्धधर्म में प्रात्महित की अपेक्षा परहित, लोक-हित आदि पर विशेष बल दिया गया है। किन्तु उसके पीछे यह भावना भी रही है कि लोककल्याण में वही प्रवृत्त हो सकता है, जिसने इस संसार के दुःख को समझ लिया है। बोधिसत्व यदि परहित की बात करता है तो उसके पहले वह चार आर्य सत्यों और मध्यममार्ग को जीवन में उतार चुका होता है। इतना ऊँचा उठा हुआ आत्मसाधक पर-हित का संकल्प करे तो जैनधर्म की इसमें सहमति ही होगी। जैन धर्म में भी प्रात्महित और पर-हित पर विस्तृत विवेचन किया गया है 8 तीर्थकरों का प्रवचन प्राणियों के कल्याण के लिए ही होता है। निष्काम, रागद्वेष से रहित प्रात्म-कल्याण भी प्रकारान्तर से लोक-कल्याण ही है । जैनाचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि 'हे भगवान! आपकी यह संघ-व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाली और सब का कल्याण करने वाली है। अन्य ग्रन्थों में भी प्रात्मकल्याण के साथ-साथ लोक-कल्याण की भावना व्यक्त हुई है। हीनयानी साहित्य में भी पर-कल्याण की भावना का अस्तित्व पाया जाता है । किन्तु अपनी नैतिकता के छोड़कर पर-हित करने की बात वहाँ स्वीकृत नहीं है 110 प्रात्म-कल्याण की अपेक्षा पर-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर हो धमण-परम्परा में अहिंसा की ऊँची प्रतिष्ठा है। बौद्ध-ग्रन्थों में अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या देखने को मिलती है। संयुक्तनिकाय में उल्लेख है कि राजा प्रमेनजित् से भगवान बुद्ध ने कहा था, राजन्! तुम्हें अपने से प्यारा अन्य कोई भी प्राणी नहीं मिलेगा । जैसे तुम्हें अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय । अत: जो अपनी मलाई चाहते हैं, वे दूसरों को कभी भी नहीं सताते हैं।'11 अन्यत्र कहा गया है कि 'जैसा मैं हूँ, वैसे ही विश्व के सभी प्राणी हैं और जैसे वे सभी प्राणी हैं उसी प्रकार मैं भी हूँ।' इस प्रकार अपने समान सभी प्राणियों को समझकर न किसी का वध करे न दूसरे से वध करायें ।12 अन्य प्राणियों को अपने समान समझना' यह जैनधर्म का मूल-मन्त्र है। वहाँ अहिंसा को समता के साथ जोड़ दिया गया है । जैसे हम जीना चाहते हैं, वैसे ही अन्य जीवों को जीने का अधिकार है। कोई मरना नहीं चाहता। अतः प्राणियों का वध त्याज्य है। सब जीवों के प्रति मात्म-ग्रौपम्य भाव रखना ही निर्गन्थ-मार्ग है ।13 बौद्धधर्म में अहिंसा ने मैत्री और करुणा का रूप धारण कर लिया है । सुत्तनिपात में कहा गया है कि विश्व के समस्त प्राणियों के साथ असीम मैत्री भावना बढ़ाई जाय । जैन धर्म में भी क्षमा भावना के द्वारा मैत्री को पुष्ट किया गया है । वहां कहा गया है कि ज्ञान का सार यही है कि उससे मैत्री की प्रभावना हो । सम्यग्दृष्टि व्यक्ति मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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