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________________ 96 जैन धर्म और जीवन मूल्य भगवद्गीता, पारसी धर्म, ग्रीक कला धर्म-प्रचार आदि कारणों पर तो विचार किया गया है ।1 किन्तु बौद्धधर्म के समकालीन जैनधर्म की प्रवृत्तियों पर चिन्तन नहीं किया गया। बौद्ध और जैन साधुनों की विहार--भूमि लगभग समान रही है । उनके श्रावक भी एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहते थे। शासकों में भी दोनों धर्मों का प्रभाव रहा है। प्रतः बहुत स्वाभाविक है कि जैन संघ में हो रहे परिवर्तन का प्रभाव बौद्ध संघ पर भी पड़ा हो । भगवान् बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यमार्ग के प्रभाव के कारण जैन साधुओं के प्राचार के नियमों में कई अपवाद स्वीकृत हुए हैं । बौद्धधर्म की महायान शाखा में बुद्ध को मूर्ति की पूजा के प्रारम्भ में यद्यपि विद्वान् ग्रीकप्रभाव स्वीकार करते हैं किन्तु यह मूर्ति पूजा की प्रवृति जैनधर्म से भी इसमें आ सकती है क्योंकि जैनधर्म में मूर्ति-पूजा की विचारधारा बहुत प्राचीन मानी गयी है 3 बौद्धधर्म के महायानी सम्प्रदाय बहुत विकसित हैं। वर्तमान में उसके स्वरूप में विविधता है किन्तु प्राचीन समय में प्राचार्य प्रसंग के अनुसार महायान के निम्न प्रमुख आदर्श थे : (1) जीव-मात्र की मुक्ति का संदेश, (2) प्राणिमात्र के लिए त्राण का विधान (3) बोधि प्राप्ति का लक्ष्य (4) बोधिसत्व की प्रादर्श के रूप में प्रतिष्ठा (5) बुद्ध का उपाय-कौशल्य द्वारा सार्वभौमिक उपदेश (6) बोधिसत्व को दस भूमियां एवं (7) बुद्ध द्वारा मनुष्य की आध्यात्मिक प्रावश्यकताओं की पूर्ति । आगे चलकर इन आदर्शों में और विकास हुमा है। उनमें पर-विमुक्ति के लिए आत्मविमुक्ति का उत्सर्ग महायान का प्रमुख आदर्श बन गया। संसार के दुःखी प्राणियों के लिए बोधिसत्व को परम शरण समझा जाने लगा था । महायान में तथागत का कथन मिलाता है कि "मैं जगत का पिता हूँ। मुझ में मन लगाओ । मै तुम्हें मुक्ति दुगा । मेरा नाम जपो।" आदि । इन महायानी आदर्शों को देखें तो इनमें से प्रारम्भिक आदर्शों का जैनधर्म के साथ कोई विरोध नहीं है। जीव-मात्र के लिए मुक्ति के महायानि आदर्श में तो उन जीवों की मुक्ति बोधिमत्व की करुणा पर निर्भर है। जबकि जैन दर्शन ने इससे प्रागे बढ़कर जीव-मुक्ति की उद्घोषणा की है। वह कहता है कि प्रत्येक प्राणी मुक्ति का अधिकारी है। प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा है और प्रत्येक प्राणी अपने ही पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। यह आत्म-विश्वास जगाने की बात जैनधर्म में प्रचलित थी । प्राणिमात्र को अभय प्रदान कर उसे त्राण देने की घोषणा महावीर आचारांग सूत्र में कर हो चुके थे . हीनयानी ग्रन्थों से भी पता चलता है कि प्राणियों के हित का संकल्प तथागत को प्रायः होता रहता था । प्रत: महायानी सम्प्रदाय में प्राणीहित और प्राणी-मुक्ति का आदर्श अनायास ही नहीं पाया है। उसके पीछे जैनधर्म में प्राणी-मात्र की रक्षा और उसकी मुक्ति का स्वतन्त्र मार्ग होने का उद्घोष भी एक प्रभावशाली कारण माना जा सकता है। महायान के शरणागत भक्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003669
Book TitleJain Dharm aur Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1990
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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