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________________ ८६ हे प्रभो ! तेरापंथ तत्काल उठे और चल दिए। कविराजजी तथा जनता को आपके इस व्यवहार से चिंता हुई पर महलों में जाकर महाराणाजी ने आपके नियम निष्ठा एवं निस्पृहता की भूरि-भूरि प्रशंसा की । इससे सर्वत्र आपकी तथा धर्मसंघ की महिमा फैली। कविराजजी के विशेष निवेदन पर आपने 'माणकलालजी' को अपना उत्तराधिकारी बनाने का संकेत दिया। उदयपुर से विहार कर गंगापुर आदि गांवों में आपने सामाजिक धड़ेबंदी मिटाकर सौहार्द पैदा किया। रेलमगरा में साध्वी सुन्दरजी तथा दौलतगढ़ में साध्वी रंभाजी को क्रमशः सवा छ:-साढ़े छः माह की तपस्या का अपने हाथों पारणा करवाया। संवत् १६४२ में गुलाब सती के निधन पर आपने साध्वी नवलोजी को साध्वीप्रमुखा बनाया। संवत् १९४१ तथा ४५ के चातुर्मास सरदारशहर, १६४२ का जोधपुर, १६४७ का बीदासर और १९४६ का चातुर्मास रतनगढ़ किए। १६४४ का मर्यादा-महोत्सव आपने बीकानेर में किया, वहां १५ संवेगी मुनि एवं यतिगण आपसे चर्चा करने आए, आपने सबको संतुष्ट किया । आप श्री पूज्यजी के उपाश्रय में भी पधारे। आपको रास्ते में स्थानकवासी आर्याए मिलती तो श्रद्धाभक्तिपूर्वक वंदन करतीं। संवत् १९४७ में शीतकाल में आप जयपुर जाते कुचामण पधारे । वहा के ठाकुर केसरसिंहजी को जीवन सुधारने हेतु मद्य-मांस न खाने, शिकार न करने, चतुर्दशी के दिन हरियाली न खाने के संकल्प कराए। महाप्रयाण ___ संवत् १९४९ के रतनगढ़ चातुर्मास के प्रारंभ में आपको प्रतिस्याय हुआ जो बिगड़ कर खांसी, ज्वर व वमन में परिवर्तित हो गया, जिससे आपका शरीर दुर्बल हो गया, पर उस स्थिति में भी राजलदेसर, रतनगढ़ होते हुए आपने सरदार शहर में मर्यादा महोत्सव मनाया । आत्मबल से संघ के सारे कार्य यथावत् किए, चतुर्विध संघ को शिक्षाएं दी। फागुण सुदि ४ को आपने युवाचार्य मनोनयन पत्र लिखकर साध्वी नवलोंजी को दिया। आलोयणा, हाजरी का काम माणकगणि को सौंप दिया तथा कई बख्शीशें भी की। चैत्र वदि २ को उपरोक्त पत्र प्रकट करते हए भरी परिषद् में माणकगणि को विधिवत् युवाचार्य पद दे दिया गया। चैत्र वदि. ५ को रात्रि में खांसी का भयंकर प्रकोप रहा, अर्द्ध रात्रि को यकायक खांसी बंद हो गई, आपने माणकलालजी को जगाने को कहा । उस समय कई संत व श्रावक-श्रीसंपतरामजी दूगड़, श्रीचंदजी गधैया आदि पास बैठे थे। आपने माणकगणि को अंतिम शिक्षा फरमाते कहा, 'सब संतों-सतियों की बागडोर तुम्हारे हाथ में है, अतः सबकी लज्जा रखना तुम्हारा कर्तव्य है, सबकी प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर संयम पालने की भावना हो, तब तक निभाना। बहिविहारी संतों का पूरा ध्यान रखना, बिना भय व पक्षपात के सबके साथ समान न्याय करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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