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________________ ७६ हे प्रभो ! तेरापंथ शरीर छोड़ा। तेरापंथ के छः आचार्यों का शासनकाल देखने वाले भाग्यशाली मुनि आप ही एकमात्र हुए। ५. मुनि फौजमलजी (फोजी लाट) आपका जन्म लाटोती में ओमजी श्री श्रीमाल के यहां हुआ। आपने संवत् १६३० मिगसर वदि १३ को दीक्षा ली । आपका स्वर्गवास संवत् १९७६ चैत वदि ३० को हुआ। आपको जैनागमों का गहरा ज्ञान था । भाषा, व्याकरणकोष, काव्य, न्याय, छन्द के विज्ञ थे व प्रमुख चर्चावादी थे। आपने शासन की खूब प्रभावना बढ़ाई व आचार्यश्री तुलसी ने आपको 'शासन-स्तंभ' की उपमा दी। ६. महासती गुलाबोंजी __ आप पंचमाचार्य मधवागणी की बहन थीं। आपका जन्म संवत् १६०१ कार्तिक सुदी में हुआ। संवत् १६०७ में सरदार सती ने आपके मकान में ठहरकर आपकी विधवा मां को दीक्षा लेने की प्रेरणा दी। संवत् १६०८ में युवाचार्य जीतमलजी के बीदासर चातुर्मास में सेवा-संपर्क बढ़ने से तीनों (भाई, बहन व मां) दीक्षा की तैयारी में लग गए। १६०८ के फागुण वदि ६ को गुलाबकुमारी व बन्नोंजी ने श्रीमद जयाचार्य के हाथों दीक्षा स्वीकार की। जयाचार्य के हाथों यह प्रथम कुमारी कन्या की दीक्षा थी। एक चातुर्मास को छोड़कर वे आजीवन गुरु-सेवा में रहीं। आपकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। थोड़े ही समय में अनेक दोहे, छन्द, गीतिकाएं आदि कंठस्थ कर लिये। समय-समय पर जब आप सुरीली लय व उन्नत स्वर से अस्खलित रूप से दोहे, छन्द, गीतिकाएं, श्लोक सुनातीं, तो जनता उमड़ पड़ती। संवत् १९१० में रतलाम में आपको चेचक निकल आयी। बाल्यावस्था से आप गुरु-आज्ञा-पालन में बड़ी सगज थीं । एक बार लाडनू में आपको इधर-उधर घूमते देखकर श्रीमद् जयाचार्य ने कहा, “यों कैसे फिर रही हो? जाओ, उस टोड़ीवाला (बड़ा आला) में बैठकर स्वाध्याय करो।" आप जाकर बैठ गईं व घंटों ध्यान, जप, स्मरण करती रहीं और उठी ही नहीं। दोपहर भोजन के समय श्रीमद् जयाचार्य को ध्यान आया और तब उन्होंने आपको बुलाया। आपकी अनुशासननिष्ठा से वे बहुत प्रसन्न हुए। आचार्यप्रवर के समक्ष भी दोपहर में संतों के ठिकाने आप व्याख्यान देती थीं । आपका व्याख्यान अत्यन्त सरस व प्रभावोत्पादक होता था। साध्वी-समाज में सर्वप्रथम संस्कृत व व्याकरण का अध्ययन आपने ही किया। पद्य रचना करने का भी प्रथम श्रेय आप ही को है। आपकी लिपि सुन्दर थी। जयाचार्य 'भगवती री जोड़' व अन्यान्य रचनाएं करते जाते व आप तत्काल लिपिबद्ध करती जातीं । महर्षि वेदव्यास के लिपिकार श्रीगणेश की तरह ही आपने यह कार्य किया । आपने आगम कंठस्थ किए। आपकी शरीर की त्वचा इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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