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________________ ६८ हे प्रभो ! तेरापंथ मुख-मंडल', 'कुमति विहंडन', 'प्रश्नोत्तर सार्ध शतक', 'चर्चा रत्नमाला', 'भिक्खु पृच्छा', 'बड़ा-छोटा ध्यान', 'प्रश्नोत्तर तत्वबोध', 'श्रद्धा व जिनाज्ञा की चौपी, 'झीणी चरचा व बोल', 'झीणा ज्ञान', 'भिक्षकृत हुंडी की जोड़', 'भांगा' आदि की रचनाएं करके आपने साहित्य-भण्डार को विपुलता से भरा। आप द्वारा रचित जीवन-चरित्रों में' 'भिक्षु यश रसायण', 'खेतसी चरित्र,' 'सतीदास चरित्र', 'ऋषिराय चरित्र', "हेम नवरसो', 'स्वरूप नवरसो' आदि प्रमुख रचनाएं हैं । आपने लगभग बीस पौराणिक आख्यानों के आधार पर प्रबंधकाव्य रचे । इतिहास की दृष्टि से लघुरास, टालोकरों पर ढाल, हेम चौढालियो, शासन विलास, आर्यादर्शन चौपाई आपकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। उपदेशात्मक साहित्य में आराधना, कथाकोष, शिक्षा की चौपाई आदि अनेक ग्रन्थ व संस्मरणात्मक साहित्य में 'भिक्खु दृष्टान्त', 'हेम दृष्टांत', 'श्रावक दृष्टांत' आदि ग्रन्थ सुबोध व सुरुचिपूर्ण रचनाएं हैं । विधान व स्तुतिपरक रचनाएं भी आपकी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं । 'पंच संधि व्याकरण' एवं 'नय चकरी की जोड़' एवं 'सिद्धांत सार' बड़ी ही गूढ़ व तलस्पर्शी रचनाएं हैं । आप अकसर वज्रासन में बैठे रहते व इन्द्रियों का निरोध कर एकान्त में स्वाध्याय करते रहते । यही आपके स्थिर योग की सिद्धि का कारण था। स्वर्ग-प्रयाण आपके शासनकाल में ३२६ दीक्षाएं हुईं, जिनमें १०५ साधु व २२४ साध्वियों ने दीक्षा ली । संवत् १६२० में आपने मघवागणि को युवाचार्य बनाकर संघव्यवस्था सौंप दी । आपका जीवस सफल आचार्य का जीवन था। जिस ओर आपने ध्यान दिया, उसी कार्य को सफलता से संपन्न किया। आपका जीवन सामान्यतया निरोग रहा, पर वृद्धावस्था में आंख में मोतियाबिंद हो गया, जिसका सफल आपरेशन सं० १९२६ में मुनि कालूजी (बड़ा) द्वारा किया गया । आपके नेत्रों में पुनः ज्योति आ गई । संवत् १९२६ के बाद आपके शरीर में अस्वस्थता रहने लगी । संवत् १९३२-३३-३४ में लाडनूं व संवत् १९३५-३६ में बीदासर चातुर्मास करने पड़े। मर्यादा महोत्सव भी अधिकतर लाडनूं-बीदासर में ही हुए । जयपुरवासियों के निवेदन पर संवत् १९३६ के चैत सुदि ८ को आप संतों द्वारा संचालित सुखपाल में विराजकर जयपुर पधारे व संवत् १९३७ का चातुर्मास व मर्यादा महोत्सव जयपुर में किया । संवत् १९३७ में आपकी प्रेरणा से मुनि कालूजी (बड़ा) ने सरदारशहर में धर्म-जागृति कर एक साथ सैकड़ों लोगों को समझाकर श्रद्धालु बना दिया। उसी वर्ष ग्रीष्मकाल में आपके गले में गांठ हो जाने से' जयपुर से १. प्रज्ञापुरुष जयाचार्य-आचार्यश्री तुलसी, प०८ के आधार पर । मेरा अपना अभिमत है कि संभवतः यह कैंसर था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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