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________________ रहन-सहन, वेशभूषा आदि में निखार भयंकर प्रतिकूल परिस्थितियों व उग्र विरोध के कारण स्वामीजी का ध्यान रहन-सहन, वेशभूषा में परिवर्तन की ओर नहीं गया और तेरापंथ में स्थानकवासी परम्परा की वेशभूषा आदि ही चलती रही, पर आपने मुंहपति, रजोहरण, चोलपट्टा, चद्दर, पहनने-ओढ़ने के रीति-रिवाज को कलात्मक रूप देकर संवारा व सुन्दरता प्रदान की, जो निरंतर विकास पाती गई । आज का संघीय रहन-सहन श्रीमद् जयाचार्य द्वारा प्रणीत व प्रेरित है । श्रुत साधना तेरापंथ का निर्माण व युवाकाल में प्रवेश ६७ श्रीमद् जयाचार्य श्रुत साधना में लगकर जो आनंद प्राप्त किया, वह उन्होंने स्वयं तक ही सीमित नहीं रखा - दूसरों को उदारमना होकर वितरित किया । अपने जीवनकाल में लगभग साढ़े तीन लाख पद्यों की रचना कर उन्होंने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। साहित्य-सृजन की प्रेरणा उन्हें अप्रत्याशित रूप से मिली । बालवय में एक बार श्री जयाचार्य एक पात्री को स्वयं अपने हाथ से रंगरोगन करके श्रीमद् ऋषिराय को बता रहे थे कि पास बैठी साध्वीश्री दीपोंजी ने व्यंग्य कसते हा, "यह कार्य तो हम जैसी अनपढ़ औरतें भी कर सकती हैं, आप तो कोई सूत्र सिद्धांत की गवेषणा कर रचना करते तो सारे संघ के लिए उपयोगी होती ।" तीर निशाने पर लगा, श्रीमद् जयाचार्य के कृतित्व को दिशाबोध मिल गया। उसके बाद उन्होंने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर उनकी पद्यबद्ध टीकाएं hi, जिनमें सर्वप्रथम 'पन्नवणा सूत्र' की जोड़ रची गई । उस समय आपकी अवस्था मात्र अठारह वर्ष थी। बाद में आगम-मंथन कर कई आगमों की पद्यबद्ध टीकाएं कीं जिनमें 'भगवती की जोड़' सबसे बड़ी है । साठ हजार पद्यों में रचित यह ग्रन्थ सरस गीतिकाओं में ज्ञेय होने के कारण अद्वितीय है । आगमों की राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीका करने का सर्वप्रथम श्रेय आपको ही है । उनमें आपने अनेक सैद्धान्तिक प्रश्नों का समाधान भी दिया है । जीवन के पिछले वर्षों में संघ व्यवस्था कार्य युवाचार्य श्री मघवा को सौंपकर आप अत्यन्त उत्कटता के साथ स्वाध्याय साहित्य-रचना में लग गए। भगवतीसूत्र के जोड़ की आप रचना करते जाते व गुलाब सती उसे लिपिबद्ध करती जातीं । उन्हें दूसरी बार पूछने की आवश्यकता नहीं रहती । गुलाब सती के अक्षर मोती की तरह सुन्दर, सुडौल व स्पष्ट थे । इस विशालकाय ग्रंथ की रचना सं० १६१६ से १९२४ तक पांच वर्षों की अवधि में हुई। वे रात्रि के समय भी काव्य-रचना करते व पांच संतों को क्रमवार बिठाकर उन्हें पांच-पांच पद कंठस्थ करा देते, जो दूसरे दिन लिपिबद्ध हो जाते । आगमों की टीका के साथ अन्य तात्त्विक ग्रन्थ 'भ्रम विध्वंसनम्', 'संदेह विषौषधि', 'जिनाज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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