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प्रस्तुति
परम्परागत संस्कारित तेरापंथी परिवार में जन्म लेने व मेरे पूज्य पिताजी श्री प्रतापमलजी कोठारी, पश्चिमी राजस्थान के लब्धप्रतिष्ठित नागरिक एवं आचार्यश्री तुलसी के अत्यन्त आस्थावान श्रावक होने के कारण शैशवावस्था से मेरा तेरापंथ से परिचय हो गया पर वह मात्र औपचारिक रहा। कॉलेज शिक्षा समाप्त करने व वकालत की विश्लेषक बुद्धि प्राप्त करने के बाद बुद्धिजीवी की तरह आचार्यश्री से प्रथम सम्पर्क संवत् २०१० के उनके जोधपुर चातुर्मासिक प्रवास में हुआ और तब से आचार्य - प्रवर की सतत शुभदृष्टि के कारण उनके प्रति मेरी आस्था निरन्तर प्रगाढ़ होती गई और वे मेरे मानस में स्थायी रूप से अंकित होते. गये । वे अनायास ही मेरे हृदय की हर धड़कन, श्वास, भाव और प्राण में बसते गए और मैं सहज में 'तुलसी शरणं पवज्जामि' में संलीन हो गया। मेरी अपनी व्यस्तताओं व विवशताओं के कारण उनके साक्षात् दर्शन-सेवा का कम अवसर मिलने पर भी मैं उनको अपने से कभी दूर नहीं मानता। वे कभी नींद में स्वप्नों में आकर दर्शन दे देते हैं तो कभी जागृतावस्था में आंखें मूंदकर मैं उनके दर्शन कर लेता हूं । वे सहज भाव से हाथ ऊपर उठाकर आशीर्वाद दे देते हैं, मैं सुख पृच्छा कर लेता हूं | कभी-कभी वार्ता भी हो जाती है। यह कैसे होता है ? मैं स्वयं नहीं जानता, पर अनेक बार मैंने ऐसा अनुभव किया है । मैं अपने चिन्तामुक्त जीवन को उनकी शुभदृष्टि का प्रसाद मानता हूं। उन्होंने स्वयं को ही नहीं बल्कि अपने प्रेरणास्रोत पूर्व आचार्यों को भी मेरे साथ सम्बद्ध कर दिया है और यही कारण है कि आचार्यश्री भिक्षु, श्रीमद् जयाचार्य व श्रीमद् कालूगणि आदि के बारे
मैं जब भी सोचता हूं या कुछ कहता हूं तो ऐसा भाव-विभोर हो जाता हूं कि मुझे अपनी विद्यमानता का भी भान नहीं रहता। मेरे कई मित्रों ने भी ऐसा महसूस किया है । इस वातावरण में कभी-कभी तेरापंथ का समूचा इतिहास चित्रपट की तरह मेरे सामने आ जाता है और मैं आत्मीय भाव से मात्र उसको निहारता रहता हूं। कुछ वर्षों से मेरे मित्रों की इच्छा रही कि तेरापंथ के बारे में अपनी एकात्मकता को मैं शब्दों में प्रकट करूं, पर हृदय में भावनाओं के पुलिंदे को
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