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________________ तेरापंथ का पालन-पोषण व क्रमिक विकासकाल ३७० अवस्था में निकल गये, जिससे पिता का हृदय पसीज गया। उन्होंने नुनि भारीमालजी को वापस लाकर भिक्षु स्वामी को सौंपा, तब उन्होंने आहार किया ।. किसनोजी ने स्वामीजी को उन्हें किसी स्थान पर सुरक्षित भेजने की प्रार्थना की, जिस पर स्वामीजी ने उनको आचार्य जयमलजी को सौंप दिया । आचाय जयमलजी ने भिक्षु स्वामी की बुद्धि की सराहना करते हुए कहा, "भीखणजी ने तीन घर बधाई कर दी, मुझे शिष्य मिला, किसनोजी को ठिकाना मिला और स्वयं ने अयोग्य शिष्य से छुट्टी पाई । " प्रथम प्रयोग भूमि स्वामीजी द्वारा तेरापंथ की स्थापना के पूर्व व पश्चात् उन्हें भयंकर उपसर्गों का सामना करना पड़ा, पर उन सारी स्थितियों में भारीमालजी स्वामी उनके साथ अडिग व अडोल रहे | स्वामीजी की कष्ट - सहिष्णुता से द्वेषवश लोग स्वामीजी व उनके सहयोगी साधुओं पर कई झूठे व अनर्गल आरोप लगा देते थे । स्वामीजी ने आपको बुलाकर कहा, "यदि कोई तुम्हारी गलती या दोष निकाले तो तुम्हें तीन दिन निराहार (तेला) रहना होगा ।" आपने आज्ञा शिरोधार्य करते हुए पूछा, "कोई गलत आरोप लगाए तो क्या करना ?" स्वामीजी ने कहा, “सही दोष. निकाले तो प्रायश्चित्तस्वरूप व झूठा दोषारोपण करे तो पूर्व कर्मों का उदय समझ निर्जरा के रूप में तपस्या करना, पर तेला हर हालत में करना है ।" आप इतने सजग थे कि आपको इस आदेश के फलस्वरूप उग्र विरोध के विषाक्त वातावरण में भी केवल एक बार तेला करना पड़ा, और वह भी किसी के मिथ्या दोषारोपण पर । भारी मालजी स्वामी का व्यक्तित्व स्वामीजी की ऊर्जा शक्ति का स्पर्श पाकर निखरता गया और वे ज्ञान संपन्न व आचारनिष्ठ साधुओं में शीर्षस्थ माने जाने लगे । युवाचार्य पद आपकी विलक्षणता देखकर संवत् १८३२ में जब आप मात्र २६ वर्ष के थे, तब व्यवस्था करने हेतु मर्यादा-पत्र तैयार करने के समय आपको युवाचार्य घोषित किया गया । तेरापंथ के दो सौ वर्ष से अधिक समय के इतिहास में आपका युवाचार्य-काल २८ वर्ष का (१८३२ से १८६० ) सर्वाधिक रहा है । स्वामीजी के साथ ४३ वर्ष तक रहकर अनेक परिषह सहते व कष्टों को समभाव से झेलते, आपने व स्वामीजी ने जिन धर्म का मार्ग प्रशस्त किया । आचार्य भिक्षु का आपके प्रति अत्यन्त वात्सल्य भाव रहा । संवत् १८६० में अपने जीवन के अन्तिम समय में, स्वामीजी ने कहा, "भारीमाल के कारण मैंने सुगमता से संयम निर्वाह किया ऐसा लगता है, इससे मेरी पूर्वजन्म की प्रीति थी, जिसके कारण इस जन्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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