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________________ १५० हे प्रभो ! तेरापंथ भाग्य बले भिक्षु गण पायोरी, हे जी रतन चिन्तामणि पिण न इसोरी ॥४॥ गणपति को ही गाढ़ा रहोरी, हे जी समचित्त शासण मांहे लसोरी ॥ ५॥ किन्तु कोई साधु-साध्वी क्रोधादि वश आज्ञा और अनुशासन का पालन नहीं कर सकने पर या अन्य किसी कारण से गण से अलग हो जाए अथवा किसी को अलग किया जाए तो किसी साधु साध्वी का मन भंगकर अपने साथ ले जाने का त्याग है । कोई जाना चाहे तब भी उसे साथ ले जाने का त्याग है । गण के साधु साध्वियों की उतरती बात करने का त्याग है । अंशमात्र भी अवर्णवाद बोलने का त्याग है और छिपे छिपे लोगों को शंकाशील बना गण के प्रति अनास्था उपजाने का त्याग है, तथा वस्त्र पात्र पुस्तक पन्ने आदि गण के होते हैं, इसीलिए उन्हें साथ ले जाने का त्याग है । बहिष्कृत या बहिर्भूत व्यक्तियों के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए, उसे स्पष्ट करते भिक्षु स्वामी ने लिखा है, 'गण से बहिष्कृत या बहिर्भूत व्यक्ति को साधु न सरधा जाए, चार तीर्थ में न मिना जाए, साधु मान वंदना न की 'जाए | श्रावक-श्राविका भी इन मर्यादाओं के पालन में सजग रहें । भिक्षु स्वामी ने गण की सुव्यवस्था के लिए मर्यादा की ओर उन्हें दीर्घ दृष्टि से देखा कि भविष्य में वर्तमान मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन करना आवश्यक हो सकता है, इसीलिए उन्होंने लिखा कि आगे जब कभी भी आचार्य आवश्यक समझे तो वे इन मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन करें और आवश्यक समझें तो कोई नयी मर्यादा करें। पूर्व मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन हो अथवा नयी मर्यादाओं का निर्माण हो, उसे सब साधु-साध्वियां स्वीकार करें। सफल साधु वही होता है, जो साधना में लीन रहे । निर्लेप रहने के लिए यह आवश्यक है कि साधु-साध्वियों गृहस्थों के संग परिचय में न फंसे । जयाचार्य ने लिखा है थे तो चतुरसीखो सुध चरचा रे थे तो पर हर देवो परचा | एतो परचा आछा नहीं, तूं तो समझ राख हिया मांहि ||१|| परंचो राखे ते नर भोला, तिण रो जीव करे डालाडोला । परचा स्युं ओलंभो पावे, तिण री क्यां ही शोभा नहीं थावे ॥ २॥ परचा वालो जो क्षेत्र भोलावे, तो मन रलियात थावे । परचा वाले क्षेत्र नहीं मेलें, तो दाव कपट बहुखेले || ३ || पछे आमण दुमण को जावे, पिण मन में तो बहु दुख पावे । रात दिवस जाए हिजरतों, परचा वाला रो ध्यान ज धरतों ॥४॥ एहवा परचा रा फल जाणी, तिण ने परहरे उत्तम प्राणी । जिण परचे रो पड़ियो स्वभावो, छूटण रो कठिन उपावो ||५|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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