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________________ १७८ हे प्रभो ! तेरापंथ, भिक्षु स्वामी ने सूत्र सिद्धान्त देखकर सम्यक् श्रद्धा और आचार की प्ररूपणा की। त्याग धर्म, भोग अधर्म, व्रत धर्म, अव्रत अधर्म, आज्ञा धर्म, अनाज्ञ अधर्म, असंयति के जीने की वांछा करना राग, मरने की वांछा करना द्वेष और संसार समुद्र से उसके तरने की वांछा करना वीतराग देव का धर्म है। भिक्षु स्वामी ने न्याय, संविभाग और समभाव की वृद्धि के लिए तथा पारस्परिक प्रेय, कलह-निवारण और संघ की सुव्यवस्था के लिए अनेक प्रकार की मर्यादाएं की। उन्होंने लिखा-(१) 'सर्व साधु साध्वी एक आचार्य की आज्ञा में रहें, (२) विहार चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें (३) अपना-अपना शिष्य (शिष्याएं) न बनाएं (४) आचार्य भी योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें। दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें। (५) आचार्य अपने गुरु भाई या शिष्य को उत्तराधिकारी चुनें, तो उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें। गण की एकता के लिए यह आवश्यक है कि उसके साधु-साध्वियों में सिद्धान्त या प्ररूपणा का कोई मतभेद न हो, इसलिए भिक्षु स्वामी ने कहा है, 'कोई सरधा, आचार, कल्प या सूत्र का कोई विषय अपनी समझ में न आए अथवा कोई नया प्रश्न उठे, वह आचार्य बहुश्रुत से चर्चा जाए, किन्तु दूसरों से चर्चा कर उन्हें शंका शील न बनाया जाए। आचार्य या बहुश्रुत साधु जो उत्तर दे, वह अपने मन में जंचे तो मान ले, न जंचे तो उसे केवलीगम्य कर दे, किन्तु गण में भेद न डाले, परस्पर दलबंदी न करे।' गण की अखण्डता के लिए यह आवश्यक है कि कोई साधु-साध्वी आपस में दलबंदी न करें, इसलिए भिक्षु स्वामी ने पैतालीस के लिखत में कहा है, 'जो गण में रहते हुए साधु-साध्वियों को फटाकर दलबंदी करता है, वह विश्वासघाती व बहुलकर्मी है ।' स्वामीजी ने स्थान-स्थान पर दलबन्दी पर प्रहार किया है । पचास के लिखत में उन्होंने लिखा है, 'कोई साधु साध्वीगण भेद न डाले और दलबन्दी न करे।' स्वामीजी ने चन्द्रभाणजी और तिलोकचंद्रजी को इसलिए गण से अलग किया कि वे जो साधु आचार्य के सम्मुख थे, उन्हें विमुख करते थे। छिप-छिपे गण के साधु-साध्विओं को फोड़-फोड़कर अपना बना रहे थे, दलबन्दी कर रहे थे। हमारा यह प्रसिद्ध सूत्र है 'जिल्लो ते संयम ने टिल्लो।' गण में भेद डालने वाले के लिए भगवान ने दसवें प्रायश्चित का विधान किया है । तथा भिक्षु स्वामी ने कहा, 'जो गण के साधु-साध्वियों में साधुपन सरधे, अपने आपमें साधपन सरधे, वह गण में रहे। छलकपटपूर्वक गण में न रहे।' पचास के लिखत में उन्होंने कहा, 'जिसका मन साक्षी दे, भलीभांति साधुपन पलता, जो गण में तथा आपमें साधुपन माने तो गण में रहे, किन्तु वंचनापूर्वक गण में रहने का त्याग है।' गण में जो साधु-साध्वियां हों, उनमें परस्पर सौहार्द रहे । कोई परस्पर कलह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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