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१४६ हे प्रभो ! तेरापंथ
१९७४ में भगवान महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर यह चर्चा व्यापक बनी और प्रबुद्ध जनों की अनुकूल प्रतिक्रिया हुई । इसी सन्दर्भ में ४ फरवरी सन् १९७१ में बीदासर में आपको 'युग प्रधान आचार्य' के रूप में सम्मानित किया गया। धर्म के साथ प्रयोग के रूप में ध्यान की परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए आपने प्रेक्षाध्यान पद्धति का सूत्रपात किया। आपने सन् १९७८ में योग साधक, दार्शनिक तथा साहित्य-स्रष्टा मुनि नथमलजी को महाप्रज्ञ की उपाधि से अलंकृत किया था बाद में उन्हें अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया, तब से 'युवाचार्य महाप्रज्ञ' के निर्देशन में प्रेक्षाध्यान शिविरों के माध्यम से इस पद्धति ने अल्प समय में ही अनेक लोगों के जीवन का रूपान्तरण करके लोक जीवन पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ा है। आचार्यश्री द्वारा अपने धर्मसंघ में प्रवर्तित साधना, अध्यात्म-शिक्षा, लोक सेवा, धर्म और सत्य साधना के विषय में सतत शोध आदि प्रवृत्तियों को गति व दिशादर्शन देने हेतु समाज के चिन्तनशील व्यक्तियों ने आपकी जन्मभूमि साडनूं में 'जैन विश्व भारती' की स्थापना की, जो युगों-युगों तक समाज को अध्यात्म पोषण देने के लिए कामधेनु बन रही है। वहां 'तुलसी अध्यात्म नीडम्' में ध्यान साधना और 'श्रुत सन्निधि' में जैन प्राच्य विद्या पर रिसर्च का कार्य निरन्तर चल रहा है । आहार-विहार एवं उत्सर्ग के साधु चर्या के नियमों में अपवाद रखकर गृहस्थों वसाधुओं के बीच विशिष्ट साधक श्रेणी के रूप में 'समण दीक्षा' आचार्यश्री के क्रांतिकारी चिन्तन एवं अदम्य आत्म-विश्वास का एक जीवन्त उदाहरण है। इस श्रेणी को प्रस्थापित कर आपने विदेशों में तथा जन-जन में अध्यात्म सम्पदा के निर्यात का सुगम रास्ता खोज निकाला है।'
अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर
'आचार्यश्री तुलसी स्वप्न-द्रष्टा हैं । आज तक आपने जो भी स्वप्न देखे, वे पूरे हुए हैं। जैनधर्म को विदेशों तक प्रामाणिक रूप से पहुंचाना, आपका चिर पोषित स्वप्न है। समणियों की विदेश-यात्रा इस स्वप्न की संपूर्ति में पृष्ठ-भूमि बन चुकी है । उनकी आगामी विदेश यात्राओं में सुनियोजित रूप से भगवान महावीर के सन्देश को जन-जन तक पहुंचाने का लक्ष्य है, पर यह सब अभी भी भविष्य के गर्भ में है । आपके जीवन के सातवें एकादशक में प्रविष्ट होकर आचार्यश्री ने अनुशासन वर्ष, संयम वर्ष, स्वाध्याय वर्ष के माध्यम से लोकजीवन में अनुशासन और संयम के गहन संस्कार भरने का जो भगीरथ प्रयत्न किया है, वह स्तुत्य एवं अपूर्व है । सन् १९८५-८६ में आचार्यश्री अपने आचार्यकाल के शानदार पचास वर्ष पूरे किए हैं। इस उपलक्ष में अमृत महोत्सव मनाया गया है। जो रचनात्मक एव क्रांतिकारी कार्यक्रमों से परिपूर्ण था। इस अवसर पर आचार्यश्री ने समाज और देश को निश्चित ही नयी दिशा दी। सन् १९६ तक चलने वाले चालू एकादशक के
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