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________________ युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी १४५ काल का यह युग अनेक दृष्टियों से, उपलब्धियों का काल रहा है। अन्तरंग व बहिरंग विरोधों और अवरोधों के बावजूद धर्मसंघ में नये उन्मेष आए । यात्रा, साहित्य, जन-सम्पर्क आदि माध्यमों से तेरापंथ की एक स्वतन्त्र पहचान बनी। साहित्य प्रकाशन के लिए आदर्श साहित्या संघ की स्थापना, दीक्षार्थी भाई-बहनों के सक्रिय प्रशिक्षण की व्यवस्था के लिए पारमार्थिक शिक्षण संस्था का प्रारम्भ, जैन आगमों की वाचना और व्याख्या के लिए आगम साहित्य का दुरूह सम्पादन आदि के निर्णय व कार्यारम्भ इसी काल में हुए । विकास की ओर ___ सन् १९५६ (वि० संवत् २०१६) में आचार्यश्री का चातुर्मासिक प्रवास कलकत्ता महानगर में व १९६६ का बैंगलौर (कर्नाटक) में था। ग्यारह वर्ष का यह काल पिछले दशक में हुए कार्यों को नये परिप्रेक्ष्य में विस्तार देने का काल रहा । इसमें लम्बी-लम्बी यात्राएं हुईं। साहित्यिक गतिविधियों में तीव्रता आई। तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु का साहित्य जनता के लिए सुगम भाषा में सुलभ हुआ। आगम साहित्य के सम्पादन का काम आगे बढ़ा । आधुनिक और असाम्प्रदायिक दृष्टि से सम्पादित आगमों का सभी जैन-अजैन विद्वानों ने हृदय से स्वागत किया। जैन सम्प्रदायों के बीच एकता, समन्वय व सामंजस्य का वातावरण बना । अणुव्रत आन्दोलन के अन्तर्गत नया मोड़ का अभियान चला जिससे मेवाड़ क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रान्ति हुई। पर्दाप्रथा, मृत्युभोज, रूढ़ि रूप से मृतक के पीछे रोना, विधवा महिलाओं के काले वस्त्र और उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार आदि सामाजिक रूढियों में आशातीत बदलाव आया। समाज की युवा पीढ़ी को संगठित और सक्रिय बनाने का प्रयास हुआ। तेरापंथ द्वि शताब्दी समारोह का विशाल आयोजन हुआ। सन् १९६१ में आचार्यश्री के सफल पच्चीस वर्षों के आचार्यत्व काल के उपलक्ष में गंगाशहर में धवल समारोह मनाया गया । जिसमें तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् ने आपको अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया। सन् १९६५ में बालोतरा में मर्यादा महोत्सव शताब्दी समारोह मनाया गया. और विकास की ओर संघ के चरण निरन्तर बढ़ते रहे। आध्यात्मिक अवदान ___'धर्म की तेजस्विता के लिए उसका अध्यात्म से अनुबन्धित होना जरूरी है। अध्यात्मशून्य मात्र उपासना या क्रियाकांडों का धर्म किसी को ऋण नहीं दे सकता न परलोक सुधार के प्रलोभन से ही धर्म का सम्बन्ध है । जीवन-व्यवहार में धर्म उतरकर उसे वर्तमान में परिष्कृत करे, यही सच्चा धर्म है।' आचार्यश्री ने अपनी इन मान्यताओं व परिभाषाओं के साथ धर्म क्रान्ति की उद्घोषणा की। सन् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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