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________________ १३२ हे प्रभो ! तेरापंथ हुई। आचार्यवर ने तुलसीजी को कहा, 'मेरे शरीर की स्थिति क्षीण हो गई है, स्वस्थ होने की आशा नहीं है, तुम्हें मैंने इसीलिए एक उद्देश्य से बुलाया है। मैं चाहता हूं कि मेरा दायित्व अब तुम संभालो, भैक्षवगण की सार-संभार करो, इसकी प्रभावना में अभिवृद्धि करो।' मुनि तुलसी यह बात सुनकर सन्न रह गए। उन्हें कभी कल्पना ही नहीं थी कि इतनी छोटी आयु में यह महान् गुरुतर कार्य उनके कंधों पर आ जाएगा। वे चिन्तन की मुद्रा में आ गए। आचार्यवर ने पुनः शिक्षा फरमाते हुए कहा, 'सदा सजग रहना । जागरूकता और विवेक के बल पर छोटा भी बड़ा बन जाता है, परिपक्व हो जाता है।' इतना कहकर गुरु-शिष्य दोनों की वाणी अवरुद्ध हो गई, वे मन ही मन में, एक-दूसरे को समझ गए। वह कैसा अद्भुत क्षण रहा होगा? इसे केवल आचार्य तुलसी ही बता सकते हैं, पर वे भी इस भाव अभिव्यक्ति को शब्दों में प्रकट कर सकें, यह संभव नहीं लगता। आचार्यवर के लम्बे सान्निध्य से विरह की कल्पना उनको असह्य हो गई। पर जब आचार्यवर ने कहा कि गण की सुरक्षा उनकी ही सेवा है और भौतिक दृष्टि से दूर होने पर भी उनके चिन्तन में हर समय वे विद्यमान रहकर प्रेरणा देते रहेंगे', तब वे पुनः संभल गए। आचार्यवर ने मातुश्री छोगांजी की चित्त समाधि स्थिर रखने तथा उनकी दीर्घ सतत सेवार्थी सती श्री खुमांजी को सम्मानित करने की शिक्षा दी। इतना करने के बाद मुनि तुलसी ने हाथ के सहारे से विश्राम हेतु उन्हें पट्ट पर सुला दिया। चार अक्षरों का शिक्षा सूत्र 'सजगता' मुनि तुलसी के जीवन का सदासदा के लिए संबल बन गया और सफलता का आधार भी। आज उस क्षण के पचास वर्ष बाद भी उनकी सजगता में कोई कमी नहीं आई है और उसमें लगातार वृद्धि और निखार ही आया है । __ इस मिलन से भावी व्यवस्था का स्पष्ट संकेत मिल गया। मंत्री मुनि ने श्री तुलसीजी को बताया, जिस दिन तुम दीक्षित हुए उसी दिन से आचार्यवर की दृष्टि तुम पर केन्द्रित हो गई थी और जो दृष्टि अब तक मौन थी, उसके साथ आज वाणी जुड़ गई है।' रात्रि में सब साधुओं को एकत्रित कर आपने प्रेरणादायी, सामूहिक शिक्षा दी और कहा, 'आचार्य अवस्था में छोटा हो या बड़ा, वह आचार्य है। चतुर्विध संघ का स्वामी है, अतः उसके आज्ञा की अखण्ड आराधना करना सबका परम कर्तव्य है। उसकी अवहेलना न हो, अवज्ञा या असम्मान न हो, इसी में संघ का भविष्य उज्ज्वल है। आचार्य की गरिमा संघ की गरिमा है। साधु संयम यात्रा पर निर्बाध चलते रहकर साधना का विकास करें, विषय वासना से दूर रहें, मर्यादाओं का पालन करें तथा भैक्षवगण का गौरव बढ़ाएं।' ____ आचार्यवर के शिक्षा रश्मियों ने सभी के हृदय में आलोक भर दिया। मंत्री मुनि ने कृतज्ञता ज्ञापित की। आचार्यवर ने यह भी बताया की भावी व्यवस्था का श्री गणेश हो गया है, जिसे दायित्व सौंपना है, उसे आवश्यक निर्देश दे दिए हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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