SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमाचार्य श्रीमद् डालगणि १९ जयचार्य के साथ रहकर ज्ञानाराधना की। फिर आप संवत् १९२६ में मुनि -दुलीचन्दजी के साथ ब्यावर तथा संवत् १९३० में मुनि कालूजी (बड़ा) के साथ उदयपुर चातुर्मासिक प्रवासों में रहे। संवत् १९३० के शीतकाल में आप अग्रणी बने । आपके जीवनकाल में अनेक उतार-चढ़ाव आए पर आपने समभाव से साहस एवं निर्भीकतापूर्वक उनका सामना किया। आप बात के पक्के, धुन के धनी, सिद्धांतवादी तथा स्पष्टवक्ता थे। ये गुण आपकी प्रगति में कभी बाधक, कभी -साधक बने । तेजस्विता का विकास श्रीमद् डालगण में सैद्धान्तिक ज्ञान का प्राचुर्य था। वक्तृत्व कला व तार्किक प्रतिभा के बल पर वे चर्चावाद में निष्णात थे, चर्चा-प्रसंग में किसी का हस्तक्षेप सहन नहीं करते थे। देवरिया (मेवाड़) में जैन मुनि प्रतापजी से चर्चा-वार्ता में, उनके अनुयायी नायब हाकिम पन्नालालजी हिरण ने बीच-बीच में बोलकर प्रतापजी का पक्ष प्रबल करना चाहा, तो आपने डांटते हुए कहा, 'हाकिम साहब यहां आपकी हुकूमत नहीं चलेगी, जैनागमों के प्रमाण ही सत्यासत्य के निर्णायक होंगे।' हाकिम साहब और मुनिजी दोनों निरुत्तर हो गए, वार्ता समाप्त हो गयी। संवत् १६४३ में आप श्रीमद् मघवागणि के साथ उदयपुर में चातुर्मास बिता रहे थे। वहां के उग्र विरोध को देखकर आचार्यप्रवर ने सब साधुओं को मौन रहने का निर्देश दे दिया था पर आप एक बार ज्योंही बाजार से निकल रहे थे कि कुछ लोगों ने पीछे से चिल्लाना शुरू किया, 'महाराज, पात्री में से पानी नीचे सड़क पर टपक रहा है, ध्यान नहीं रखते।' बार-बार चिल्लाने से भीड़ इकट्ठी हो गयी, श्रीमद् डालगणि उसी समय एक दुकान की चौकी पर चढ़कर बोले, 'भाइयो! देखो, झूठ की भी हद होती है, मेरी पात्री में तो पानी ही नहीं है, फिर क्या, कैसे टपक रहा है ?' इतना कहकर झोली में से साफ सूखा पात्र निकालकर भीड़ में उसे औंधा कर दिखा दिया । भीड़ को लगा कि लोग द्वेषवश झूठी बकवास कर रहे हैं। आपने ठिकाने आकर श्री मघवागणि को जानकारी दी तो उन्होंने आपकी सराहना करते हुए कहा कि ऐसी परिस्थिति में तो स्पष्टीकरण होना ही चाहिए था। स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य हुकमचन्दजी के शिष्य चौथमलजी ने उदयपुर, रेलमगरा आदि स्थानों पर चर्चा कर आपस में क्लेश बढ़ाने को प्रोत्साहन देना चाहा, जिस पर महाराणाजी को आदेश देना पड़ा कि जहां तेरापंथ के आचार्य हों, वहां चौथमलजी न जाएं, ताकि शान्ति भंग न हो। कन्छो पूज्य आपने अग्रणी काल में कच्छ की तीन यात्राएं की तथा इतना प्रभाव छोड़ा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003668
Book TitleHe Prabho Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1989
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy