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________________ जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला योग या मन, वचन और काय की क्रियायें ये सभी कारक कर्म-पुद्गल और कर्म-बलों को प्रभावित करते हैं। हम इन्हें पांच कार्मिक एजेन्ट (अभिकर्ता) कहेंगें। इनमें से प्रत्येक कारक आत्मा के चारों घटकों - ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य को प्रभावित या दुर्बल करते हैं। सबसे पहला कारक मिथ्यात्व है। इसका अर्थ है आत्मा के स्वरूप के विषय में असत्य धारणायें अथवा 'मै कौन हूं' के विषय में भ्रांत धारणायें। हमारे उपरोक्त विवरणों के सन्दर्भ में इसका अर्थ यह होगा कि मिथ्यात्वी पूर्वोक्त स्वतःसिद्ध अवधारणाओं 1-3 में विश्वास नहीं करता, फलतः आत्मा के ज्ञान और दर्शन के घटक आवरित हो जाते हैं। दूसरे कारण अविरति या असंयम का अर्थ है कि जीव में आत्म-नियंत्रण या संयम नहीं है जिसके कारण वह अशुभ या अनैच्छिक क्रियायें या कर्म करता है। इससे सुख का घटक विकृत होता है। इसी प्रकार, प्रमाद पद का अर्थ है – मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुखता के प्रति अक्रियता या जड़ता। इससे आत्मा का वीर्य घटक बाधित होता है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैन योग का अर्थ मन, वचन और काय की सामान्य क्रियायें है। आधुनिक 'योग' शब्द के अर्थ के रूप में इस विषय में भ्रांति नहीं करनी चाहिये। सकारात्मक (जैन) योग (पुण्यार्जनी क्रियायें) लघु घनत्व के या पुण्य के कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करता है और नकारात्मक क्रियायें (हानिकारक क्रियायें) भारी या पाप के कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करती हैं। (देखिये, परिशिष्ट 3 ब, उद्धरण 5.1) कषाय कर्म-बन्ध का अंतिम कारक है। यह कर्म-बन्ध की दृढ़ता एवं तीव्रता का मुख्य घटक है। (देखिये परिशिष्ट 3 ब, उद्धरण 5.2)। यह घटक आत्मा के चारों घटकों को प्रभावित करता है। इसका पूर्ण विवरण हम खंड 5.3 में प्रस्तुत करेंगे। कर्म-बन्ध के उपरोक्त पांचो कारकों का संक्षेपण निम्न है : मिथ्यात्व ज्ञान-दर्शन घटकों का आवरक अविरति सुख-घटक का विकारक प्रमाद वीर्य या क्षमता का बाधक योग पुण्य (लघु) या पाप (सघन) कर्मों का आकर्षक कषाय चारों घटकों को प्रभावित करता है 5.2 व्यवहार में कर्म-घटक अब हम अध्याय 4.2 में परिभाषित आठ प्रकार के कर्मों में से प्रत्येक के व्यावहारिक परिणामों का विवरण देंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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