________________
जीवन का अनुक्रम
27
अर्थात इनमें शरीर, मुख, नासिका, आंखें और कान होते हैं। इन्हें पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इन पांच इंद्रिय वाले जीवों में पहला स्तर पशु (जीवों) का है जिन्हें कालबोध नहीं होता अर्थात वे यह नहीं जानते कि भूत, भविष्यत् और वर्तमान क्या है ? इन्हें जीवन-धुरी पर पांच जीवन-यूनिट दिये गये हैं। पशु-जीवन के बाद, जीवन का दूसरा उच्चतर स्तर मनुष्य का होता है जिसे कालबोध होता है और जिसमे उपरोक्त पांच इंद्रियों के अतिरिक्त सामंजस्य की उच्चतर कोटि भी होती है। मनुष्य जीवों की यह कोटि बहुत विस्तृत है। उदाहरणार्थ, एक अपराधी मनुष्य, एक मानवतावादी मनुष्य की तुलना में जीवन-धुरी पर निम्नतर अंक प्राप्त करेगा। औसत मनुष्य के लिये हमने 100 जीवन यूनिट का अंक स्वीकृत किया है। इस आधार पर अपराधी मनुष्य को केवल 10 अंक ही प्राप्त होंगे। इस प्रकार, चित्र 3.1 में दी गई जीवन-धुरी पर जीवन-यूनिटों की संख्या का विवरण पूर्ण हो जाता है।
इस चित्र में दिये गये कुंछ आरोही या उच्चतर जीवन-यूनिट वाले प्राणियों को आध्यात्मिक उत्थान की कोटि से सम्बन्धित किया जा सकता है। इन्हें चित्र 3.2 में प्रदर्शित किया गया है। इस उत्थान के प्रथम चरण में साधु गण आते हैं जो एक-निष्ठ मन से आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले माने जाते हैं। दूसरे चरण में, उन आध्यात्मिक गुरुओं (उपाध्याय) का उल्लेख किया गया है जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है और जो श्रावकों तथा नवदीक्षित या अन्य साधुओं को अध्यात्म का शिक्षण देते हैं। तीसरे चरण में, आध्यात्मिक आचार्य आते हैं जिनके आचरण और उपदेश एक-समान होते हैं। वे सच्चे गुरु होते हैं और चतुर्विध संघ का नेतृत्व करते हैं। चौथे चरण में, परिशुद्ध जीव या अर्हत् आते हैं जिन्होंने राग-द्वेष रूपी अंतरंग शत्रुओं को जीत लिया है। जीवों की इन कोटियों के सांकेतिक जीवन-यूनिट क्रमश: 100, 10%, 1010 और 10100 माने गये हैं। आध्यात्मिक उत्थान के अंतिम चरण में परम शुद्ध आत्मायें (मुक्त आत्मायें) या सिद्ध जीव आते हैं जो वीर्य/शक्ति के रूप में अनन्त-चतुष्टय के धारक होते हैं। इन सिद्ध आत्माओं के जीवन-यूनिट के अंक अनन्त होते हैं क्योंकि इनमें कोई अशुद्धि नहीं होती (यहां तक कि उन्हें शरीर भी नहीं होता)। (प्रायः जैन इन विवरणों को शाब्दिक रूप से स्वीकार न करें, लेकिन पूर्ववर्ती जैन विश्वास करते थे कि अन्य धर्मों के गुरु भी उच्चतर चरणों को प्राप्त कर सकते हैं।)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org