________________
23
आत्मा एवं कर्म-पुद्गलों का सिद्धान्त
स्वतंत्रता की इच्छा (प्रेरण) : भव्यत्व मुक्त आत्मा
सिद्ध पूर्ण जीव
अरिहंत/अर्हत् 3. कार्मिक गति-विज्ञान और घनत्व
कार्मिक-बंध में कार्मनों की संख्या = प्रदेश कार्मन-क्षय के समय स्थितिज ऊर्जा = अनुभाव बंधे हुए कार्मनों के क्षय का समय = स्थिति कर्म-पुद्गलों के विविध रूप (कर्म घटक) = प्रकृति निस्सरण = उदय
दमन = उपशम टिप्पणियां 1. पी. एस. जैनी, पृ. 114
"जैन आत्मा के असंख्य गुणों की बात करते हैं। तथापि, यह तर्कसंगत रूप से कहा जा सकता है कि दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य के गुण, जिनका संक्षिप्त विवरण ऊपर दिया गया है, आत्मा को परिभाषित करने के लिये पर्याप्त हैं। इन्हीं से यह प्रकट होता है कि आत्मा एक विशिष्ट तत्त्व है जो सभी अन्य तत्त्वों से भिन्न है। पी. एस. जैनी, पृ. 113
___ "यहां यह स्पष्ट कर देना चाहिये कि जैन आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को केवल सहचरण मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि ये दोनों एक ही क्षेत्र में रहते हैं। इनका शुद्ध आत्मा से कोई प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता। पी. एस. जैनी : पृ. 112.
__ “कर्म-कण लोकाकाश के प्रत्येक भाग में मुक्त रूप से विचरण करते रहते हैं। इस स्थिति में उनमें कोई भेद नहीं होता - वे एकसमान होते हैं। इन सरल कणों से विविध प्रकार के कर्म-पुद्गल (प्रकृति) बनते हैं जिन्हें उनके कार्य के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। यह तभी होता है जब वे किसी संसारी आत्मा के साथ अन्योन्य-क्रिया करें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org