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________________ 18 जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला है अर्थात् सम्पूर्ण कर्म-पुदगल आत्मा से वियोजित होकर गिर जाते हैं। इसे कर्म-विभंजन या कर्म-क्षय कहते हैं। जब सभी कार्मन-कण निकल जाते हैं; अर्थात् आत्मा में कोई कर्म-क्षेत्र नहीं रह पाता तब वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता को प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण कर्मक्षय और सम्पूर्ण क्षमता की अभिव्यक्ति की अवस्था आत्मा की मुक्त अवस्था कहलाती है। फलतः, आत्मा की मुक्त अवस्था को छोड़कर उसमें कर्म-बंध और कर्म-विभंजन सदैव होता रहता है। यह कर्म-बंध और कर्म-विभंजन की प्रक्रिया कैसे संपन्न होती है, यह अध्याय 5-7 में बताया जाएगा। चित्र 2.6 इस प्रक्रिया की क्रियाविधि को 2.5 के समान ही निरूपित करता है। चित्र 2.6 अ कर्म-संयुक्त आत्मा है और चित्र 2.6 ब कर्म-बल पर आगंतुक कार्मन-कणों के प्रभाव को प्रदर्शित करता है। चित्र 2.6 स कार्मिक आस्रव को अवरुद्ध करने के लिये कर्म-बल कवच को प्रदर्शित करता है और चित्र 2.6 द कार्मिक-बल कवच के कारण अंतिम कार्मन-कणों से युक्त कार्मिक निःसरण का संकेत देता है। चित्र 2.6 इ में मुक्त आत्मा बताया गया है जहां कर्मों के निःसरण के कारण अनन्त वीर्य आदि गुण प्रकट होते हैं जिन्हें प्रसरत किरणों के द्वारा बताया गया है। कार्मन-कणों की धारणा बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इस धारणा की हम विभिन्न अवस्थाओं में होने वाली मनोवैज्ञानिक अनुक्रियाओं की अवधारणा से तुलना कर सकते हैं, लेकिन कार्मिक अनुक्रियायें न तो दूसरे जीवों के मनोविज्ञान की व्याख्या करती हैं और न ही जीव में अंतर्घटित होने वाली क्रियाविधि को स्पष्ट करती हैं। 2.3.4. नव तत्त्व हमने अभी अजीव या अचेतन की धारणा का विवरण दिया है जिसमें निम्न बिंदु समाहित हुए हैं : पुद्गल (कार्मिक पुद्गल) कार्मिक बंध/समेकन/संगलन कार्मिक बंध/आस्रव कार्मिक बल-कवच (संवर, कर्म-ढाल) कार्मिक क्षय/विभंजन/निर्जरा और मुक्ति इनके साथ ही, उपरोक्त विवरण में 7. आत्मा (संसारी या मुक्त) 8. भारी कार्मिक पुद्गल (पाप) लं 06 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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