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________________ जैन और जैनधर्म 1.3 स्वतः सिद्ध अवधारणात्मक या सूत्रात्मक उपगमन आध्यात्मिक उन्नति का प्रत्येक मार्ग कुछ विशिष्ट धारणाओं या विश्वासों के साथ प्रारंभ होता है। इस पुस्तक में मैने यह बताया है कि जैनों के इन विश्वासों को चार मौलिक एवं स्वतः सिद्ध अवधारणाओं या सूत्रों के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है जिसके आधार पर समग्र जैन अध्यात्म पथ समझा जा सकता है। ये स्वतःसिद्ध अवधारणायें या सूत्र निम्न प्रकार के प्रश्नों का समाधान देती हैं : 1. हम अपूर्ण क्यों हैं ? 2. अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिये हमें क्या करना चाहिये ? यदि हम वास्तव में, अमर होते पूर्ण और अनन्त आनंदमय होते जहां हमारी सारी इच्छायें पूर्ण होतीं, तो हमारे लिये किसी भी आध्यात्मिक पथ का कोई महत्त्व नहीं होता। लेकिन, वस्तुतः हममें से प्रत्येक प्राणी अपने अस्तित्व के मुख्य बिंदु के रूप में सुख और दुःख भरे जीवन में विविध प्रकार के उत्थान और पतन के चक्र से गुजरता है। इसके अतिरिक्त, हमारे सामने सभी प्रकार के प्राणी हैं जो इन सांसारिक प्रक्रियाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया प्रदर्शित करते हैं। विभिन्न प्राणियों में इस प्रकार के भेद क्यों पाये जाते हैं ? कोई व्यक्ति विकलांग क्यों पैदा होता है ? इस संसार में अच्छे और बुरे आदमी क्यों हैं ? क्या संसार में कोई ऐसा है जो 'पूर्ण' हो ? क्या रोग, मृत्यु और विनाश अनिवार्य हैं ? इस संसार में जीवन या जीवों के विभिन्न रूप क्यों हैं ? जैन दृष्टिकोण से इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने के लिये, मैंने चार स्वतः सिद्ध अवधारणाओं या सूत्रों की योजना की है, जो निम्नलिखित हैं : 7 स्वतः सिद्ध अवधारणा - 1 : आत्मा कर्म - पुद्गलों से संदूषित स्थिति में रहता है और यह चाहता है कि वह पूर्ण परिशुद्ध हो । स्वतः सिद्ध अवधारणा - 2 : संसार के प्राणी एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, क्योंकि उनके साथ सम्बद्ध कर्म - पुद्गलों की प्रकृति और घनत्व परिवर्ती होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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