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________________ परिशिष्ट 1 : भ. महावीर का जीवन वृत्त ____133 यह कहा जाता है कि महावीर तब तक एकल साधना करते रहे जब तक मंखलि गोशाल ने उन्हें खोज नहीं लिया। उसने महावीर के उत्कृष्ट गुणों के बारे में सुन रखा था। गोशाल एक परिव्राजक कथावाचक था और नियतिवादी आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था। बाद में तो, वह इसका प्रमुख प्रवक्ता बन गया। यह कहा जाता है कि महावीर और गोशाल छह वर्ष तक एक साथ रहे। इतने समय में गोशाल महावीर से और उनकी क्षमताओं से पूरी तरह परिचित हो गया। महावीर ने उसे छह माह की तपस्या बताई जो उन-जैसी क्षमताओं को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य थी। अंत में गोशाल महावीर का विरोधी हो गया और उसने महावीर को ललकारा। उसने महावीर को भयभीत करने के लिये शाप दिया कि वे छह माह के अंदर ही किसी भयंकर बीमारी से मर जायेंगें। महावीर बीमार भी पड़ें, पर वे स्वस्थ हो गये। कुछ समय बाद गोशाल की मृत्यु से यह धारणा बनी कि शाप उसी को डस गया। महावीर सदैव ही योगिक या ऐंद्रजालिक शक्तियों के उपयोग के विरोधी थे। अंत में, महावीर ने अपने उद्देश्य के अन्वेषण हेतु ली गई दीक्षा के ठीक 12 वर्ष, 6 माह और 15 दिन बाद केवलज्ञान (सक्रिय सर्वज्ञता) प्राप्त किया। इस प्रकार वे समग्र रूप से विश्व की संरचना व क्रियाविधि और विशेष रूप से मानव की प्रकृति को समझने में समर्थ हो सके। इस अन्तर्ज्ञान से वे सभी प्रकार की समस्याओं के मूल का ज्ञान कर सके। प.1.2 तीर्थंकर के रूप में महावीर का जीवन अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये राजसी रूप को छोड़ने के बाद केवलज्ञान प्राप्त होने पर महावीर ने अपने ज्ञान को समाज में सहभागित करने की सोची। उनके समाज के सामने आने की घटना उनके लक्ष्य अन्वेषण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने अपना सबसे पहला उपदेश ऐसे श्रोताओं को दिया जिनमें इंद्रभूति गौतम भी सम्मिलित थे। गौतम हिन्दू शास्त्रों के महान ज्ञाता थे और उन्हें अपने ज्ञान का अभिमान था। इन दोनों की भेंट के समय कुछ प्रश्नोत्तर हुए, जिनका समाधान पाकर गौतम इनके गणधर (प्रमुख शिष्य) बन गये। महावीर की अंतरंग सभा में ग्यारह गणधर थे। महावीर में प्रकृत्या ही महान् संगठन क्षमता थी और जब उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ी, तब उन्होंने चतुर्विध संघ (श्रावक, श्राविका, साधु और साध्वी) के रूप में 'तीर्थ' (संसार समुद्र को पार करने का माध्यम) की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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