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________________ 132 जैनधर्म की वैज्ञानिक आधारशिला गृहत्याग नहीं करेंगे। उनकी मृत्यु के बाद, वे लगभग दो वर्ष तक घर में ही रहे जिससे उनकी मृत्यु-पीड़ा से उनके बड़े भाई उबर सकें। इसके बाद, उन्होंने अपने बड़े भाई से गृह-त्याग की आज्ञा माँगी (दिगम्बर यह मानते हैं कि अपने मां-बाप के जीवित रहते ही वे साधु हो गये थे)। ऐसा माना जाता है कि राजमहल-निवास के इन अंतिम दो वर्षों में वे अपना अधिकांश समय राज कार्यों या सांसारिक कार्यों में बिताने के बदले आत्म–विश्लेषण में बिताते थे। तीस वर्ष की अवस्था में, समाज में विद्यमान अनेक समस्याओं की जड़ के अन्वेषण के लिये उन्होंने गृहत्याग कर दिया। उन्होंने मानव की प्रकृति को तथा सामान्यतः जगत के स्वरूप को समझने के लिये वैराग्य धारण किया। यह स्पष्ट है कि राजमहल का वातावरण एवं उनका सामाजिक स्तर इस अन्वेषण के लिये उपयुक्त नहीं था। प.1.1 लक्ष्य का अनुसरण और बोधि-प्राप्ति दीक्षा लेने के बाद के साढ़े बारह वर्षों तक वे गहन मनोनिष्ठा के साथ अपने लक्ष्य के अन्वेषण में लगे रहे। उन्होंने अनुभव किया कि ध्यान की साधना में मिताहार, एक-वस्त्र धारण, पैदल विहार और उपवास सहायक हैं। इसी के अनुरूप, उन्होंने अपने हाथों से केश लुंचन करने जैसी क्रियाओं के माध्यम से अपनी (दूसरों पर निर्भरता के समान) आवश्यकताओं को अल्पीकृत किया। अपने लक्ष्य के प्रति उनकी एकाग्रता इतनी गहन थी कि जब तेरह माह की दीक्षा एवं त्याग के अभ्यास के समय उनका वस्त्र झाड़ी में फंस कर फट गया, तो उसके बाद वे नग्न अवस्था में ही रहे। (तथापि, दिगम्बर परम्परानुसार, उन्होंने दीक्षा के समय ही अपने सभी वस्त्रों का त्याग कर दिया था)। उनके दीक्षावस्था की, अपने उद्देश्य के प्रति एकनिष्ठता को प्रदर्शित करने वाली एक अन्य घटना भी है। एक बार वे खड़े होकर (खड्गासन) किसी खेत में ध्यान कर रहे थे। उनके आसपास ही एक किसान की गायें चर रही थीं। किसान ने उन्हें देखकर कहा, "मै अन्यत्र जा रहा हूँ। आप इन गायों को देखते रहिये ।” चूंकि महावीर गहन ध्यान की मुद्रा में थे, उन्होंने यह भी नहीं देखा कि उनके आसपास गायें चर रही हैं। जब कुछ समय बाद किसान वहां आया, उसने देखा कि उसकी गायें वहां नहीं हैं। लौटकर उसने ध्यानस्थ महावीर से इस विषय मे पूछा, पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया क्योंकि वे मौनव्रत लिये हुए थे। इससे किसान और भी व्यग्र हो गया और उसने महावीर को दंडित करने के लिये उनके कान में लकड़ी की दो कीलें ठोक दीं। लेकिन इससे भी महावीर का मौन नहीं टूट पाया और वे उसके प्रति अनुकम्पित ही बने रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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