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________________ जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला तैयार करते हैं जिससे आत्मा से कर्म-पुद्गलों का पूर्ण वियोजन हो जाता है और मोक्ष प्राप्त होता है। 1. गुप्ति : गुप्ति शब्द का निहितार्थ है - मन, वचन, और काय की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करना या वश में रखना। इसका अर्थ है - अनावश्यक प्रवृत्तियों का वर्जन एवं एकतानता के लक्ष्य की प्राप्ति। ये गुप्तियां तीन हैं : मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति समिति : समिति शब्द का अर्थ है विविध प्रकार की प्रवृत्तियों को सावधानीपूर्वक एवं सकारात्मक रूप से संपादन करना। ये समितियां पांच हैं : (1) ईर्या समिति : आवागमन के समय जीवों की हत्या या लघुतर जीवों को पीड़ा न हो, इसका ध्यान रखना। चलते समय चार हाथ आगे देखकर चलना। (2) भाषा समिति : सत्य वचन बोलने का प्रयत्न करना और कम-से-कम बोलने का अभ्यास करना। (3) एषणा समिति : निर्दोष भिक्षा/आहार ग्रहण करना जिससे आत्म-संतुष्टि या कृतार्थता की भावना न पनप सके। (4) आदान-निक्षेपण समिति : विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के उठाने एवं रखने में सावधानी रखना जिससे किसी भी प्रकार के जीवों को पीड़ा या हानि न हो। (5) व्युत्सर्ग समिति : मल-मूत्र त्याग आदि बाह्य उत्सर्जनी क्रियाओं में सावधानी रखना जिससे विभिन्न जीवों को कोई बाधा/पीड़ा न पहुचे। 3. धर्म : दश धर्म : उपरोक्त अभ्यासों (गुप्ति/समिति) को प्रबल करने के लिये व्यक्ति को धर्म के दस नियमों का पालन करना चाहिये। ये धर्म निम्न हैं : 1. उत्तम क्षमा क्रोध न करना, सहिष्णुता, धैर्य की पूर्णता उत्तम मार्दव विनम्रता, अभिमान न करना 3. उत्तम आर्जव निश्छलता, सरलता, छल-कपट/मायाचारी नहीं 4. उत्तम सत्य सत्य गुण की परिपूर्णता 5. उत्तम शौच शुचिता, पवित्रता, लोभ का अभाव 6. उत्तम संयम इंद्रिय और प्राणियों के प्रति निग्रह-भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003667
Book TitleJain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanti V Maradia
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2002
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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