SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ निर्जरा भी हे।ती रहती है । अनेक जैन शास्त्रों ने कहा 'पूर्व-बद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है |' या आत्म प्रदेशों के साथ कर्म प्रदेशों का उस आत्मा के प्रदेशों से झडना निर्जरा है । ' ( भगवती आराधना) इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि राजबार्तिक ग्रंथो में भी व्याख्या विवेचन प्रस्तुत है । निर्जरा के दो भेद सकाम या सविपाक तथा अकाम या अविपाक निर्जरा है । सकाम या सविपाक अर्थात अपने समय से स्वयं कर्मों का उदय में आकर झड़ना । ऐसे कर्म एवं तज्जन्य सुख-दुख को भोगना ही पड़ता है । कर्म अपना पूरा प्रभाव बताते ही हैं तभी झडते हैं । ऐसे कर्मोदय के समय यदि व्यक्ति चलित या दुर्ध्यान में चला जाये, उसमें कषाय की मात्रा बड़े तो नए कर्म ही बधते रहेंगे और व्यक्ति भी मुक्त नहीं हो पायेगा। दूसरे अकाम या अविपाक निर्जरा का मतलब है समय से पूर्व विशेष तपस्यादि द्वारा कर्मों का नष्ट करना । जैसे कच्चे आम को विशेष प्रयत्नों से समय से पूर्व पका लेना । ऐसी निर्जरा उच्च चरित्र धारण करने से ही होती है | जो तपस्विओं के ही संभव है। इस विपाक निर्जरा के भी मिथ्या एवं सम्यक पूर्ण दो उप विभाग हैं । इच्छा निरोध के बिना केवल बाह्यतप द्वारा की गई जिरा मिथ्या विपाक के अन्तर्गत होती है जबकि साम्यता की वृद्धि सहित काम क्लेषादि द्वारा की गई सम्यक निर्जरा है । मोक्ष साधक के लिए सम्यक विपाक ही श्रेयस्कर है । तपस्या के माध्यम से ही दोनों प्रकार की निजरा संभव है । तप के द्वारा ही रांवर और तदनन्तर निर्जरा होती है । और तप भी सम्यक पूर्वक होना चाहिए । चरित्र धारण करने से संबर एवं तप से निर। होती है। मोक्ष : मोक्ष अर्थात सोध्य की प्राप्ति । आनव से मोक्ष तककी यात्रा अर्थात संसारके कर्मों से मुक्त होकर सच्चिदानंद स्वरुप की प्राप्ति । ये चारों तत्त्व क्रमशः सम्बद्ध हैं । आस्त्रव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy