________________
सूफान वा चारों ओर से धूल आदि उड़ाकर प्रवेश करती है वह आस्रव है । पर जब इन दरवाजे खिड़कियों को वध कर दिया जाये तो आँधी-पानी एवं उसके साथ आनेवाली धूल आदि पदार्थो का प्रवेश बंद हो जाता है । आचार्यों ने कहा है--'मिथ्यात्व अविरतिः प्रमादः कवायः और मन-वचन कार्य की प्रवृत्ति ये सब कर्मों के आने के द्वारा होने से आस्रव है। इनके विपरीत सम्यकत्व देशवः महाव्रत, अप्रमाद माह व कपायहीन शुद्धात्म परिणति तथा-मन वचन कार्य के व्यापार की निवृत्ति ये सब कर्मों के विरोध हेतु होने से संबर हैं । हां समिति: गुप्ति आदि रुप जीव के शुद्ध भाव संवर हैं । और नवीन कर्मों का न आना द्रव्य संवर है । (ज. सि. को. पृ १३ ) तात्पर्य कि नये कर्मों का रोकना या न आने देना संवर है । इसके लिए भेद-विज्ञान-दृष्टि उत्पन्न करके जीवात्मा और आस्त्रवों का भेद जान लेना चाहिए । एसा ज्ञान होने पर कषायादि के कारण उत्पन्न आस्त्रयों को रोका जा सकता है । नए कमों का बांधना यदि नहीं रोका गया तो कभी भी छुटकारा संभव नहीं । द्रव्य ग्रह में संवर के लिए आवश्यक तत्त्वों में पांचव्रत, पांचसमिति, तीनगुप्ति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईसपरिषह तथा चरित्र धारण को माना है । इसका उद्देश्य इतना ही है कि आत्मा के शुद्ध चैतन्य स्वरुप पर जो कर्मों के आस्रव से कालिमा चढ़ गई हैं, धुमिल बंधन बंध गये हैं उन्हें साफ करना है । नई गंदगी को रोकना है।
निर्जरा : आस्रव से बधे कर्मा का क्षय करना निर्जरा है । संबर में नए कर्मों का आगमन रोका गया । पर जो बद कर्म हैं उन्हें नष्ट या भय करना ही निर्जरा या जलाना है । जैसे प्रतिक्षण नए कर्मों का मानव व बध होता है वैसे ही प्रतिक्षण उनकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org