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________________ आनव :- कर्म के प्रकरण में हम ‘कर्म का आगमन ' के अन्तर्गत, आलव की चर्चा संक्षिप्त में कर ही चुके हैं । तथापि यहां कुछ अधिक समझेंगे । कर्मों का आत्मा के साथ जुडना ही आस्नव है 'जीव के द्वारा प्रतिक्षा मन-वचन और कर्म से जो कुछ शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होती है उसे जीव का भावानव कहते हैं । उनके निमित्त से कोई विशेष प्रकार की जड़ पुद्गल वर्ग गाये आकर्शित होकर उसके प्रदेशो में प्रवेश करती हैं से। ट्रव्यास्त्रत्र है सर्वसाधारण जनोंको तो कपायवश होने के कारण यह आस्रव आगामी वध का कारण पड़ता है इसलिए साम्परायिक कहलाता है, परंतु वीतरागी जनों को वह इच्छा से निरपेक्ष कर्मवश होती हैं इसलिये आगामी वध का कारण नहीं होता, और आने के अनन्तर क्षण में बड जाने से ईर्यापथ नाम पाया है।' जे, सि को पृ. २९६, राजवार्तिक में भी कहा है जिससे कर्म आव से आसत्र है यह कारण साधन से लक्षण है । आस्त्रवण मात्र अर्थात् कमों का आना मात्र आस्रव हैं, यह भाव साधन द्वारा आस्रव है। पुण्य-पाप रुप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं । जैले नदियां के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भर जाता है वैसे ही मिथ्था दर्शनादि स्नोतो से आत्मा में कर्म आते हैं । (रा. वा. ६, २, ४, ५, ५; °, ६) ___इन दो स्पष्टताओं से इतना स्पष्ट हुआ कि आत्मा के साथ कर्मों का योग ही आनव या आगमन है । यह पुण्प या पापमयी या शुभ या अशुभ होता है । जो संसार में भटकाने के कारण साम्परायिक है कारग कि एसे कर्म आस्नब में आकर चिपक जाते हैं । जबकि ईर्यापथ वाले कर्म आकार तुरंत झड़ जाते हैं । इन कर्मास्नवा में हमारी शुभ या अशुभ दृष्टि की महत्ता व राग भावों का विशेष महत्व है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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