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________________ कालः वस्तु के परिवतन में सहायक द्रव्य कहलाता है । परिवर्तन वस्तु का लक्षण है । परन्तु बाह्य निमित्त के बिना स भय नहीं काल द्रव्य की सहायता के बिना संसार का परिवत न संभव नही होता । वस्तु का रुप बदलना, नये का पुराना होना युवा का वृद्ध होना, वतमान काल का भूतकाल में परिवत न होना सभी परिवतन इस कालद्रव्य के कारण हैं । काल के दो प्रकार (१)निश्चय काल (-) व्यहारकाल ऐसे दो भान किए गए हैं। काल गुओं के कारण ही संसार में प्रतिक्षा परिवर्तन होता है | इन्ही के निमित्त से बस्तु का अस्तित्व भी कायम है। आकाश के एक प्रदेश में स्थित पुल का एक परमाणु मन्दगति से जितनी देर में उस प्रदेश से लगे हुए दूसरे प्रदेश पर पहुचता है उसे समय कहते हैं । समयो का समूह ही विशेष समय बनकर व्यवहारकाल रूप में घटी, प०, दिन रात के नाम से पुकारा जाता है । सू.." आदि नक्षत्रों की गति को भी काल कहते हैं । यद्यप्रि अन्य दर्शना ने काल का स्वीकार किया है पर वे व्यवहार काल तक ही सीमित रहे । मात्र जैन दर्शन में ही काल्दयाको अनुरुप वस्तु-स्वरुपमें स्वीकार किया है । यह आकाश की भाँति अमूर्तिक है--पर अनेक रूपा है। अस्थिकाय :- षडद्रव्यो में काल के अलावा सभी द्रव्य पंचास्तिकाय माने गये हैं । अस्तिक'य से ताप्तर्य है शरीर का होना । जैसे शरीर बहुदेशी होता है जैसे ही काल के अलावा शेष पांच द्रव्य बहुप्रदेशी होते हैं । अतः इन्हें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति काय, आकाशास्तिकाय, पुद्गला स्तकाच एवं जीवास्तिकाय, कहा गया है । ये पाँचा असख्यात और अनन्त प्रदेश वाले द्रव्य हैं । काल द्रष्य के असंख्य कालाणु परस्पर आबद्ध रहने के कारण वे काय नहीं हो पाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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