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________________ चेतना इसके लक्षण माने गये हैं | भावपाहुड में कहा है जीव कर्ता है, भोक्ता है, अमूर्तीक है शरीर प्रमाण है, अनादि निधन है, दर्शनज्ञान उपयोगमयी है ऐसा जितबरेन्द्र द्वारा निर्दिष्ट है । इस संक्षिप्त व्याख्या से इतना स्पष्ट हुआ कि जिसमें चेतना गुण है वही जीव है जो पुद्गल या अजीब से पृथक है । पुद्गल जहाँ इन्द्रियों के अनुरुप रूप, रस गध एव' स्पर्श गुणवाला होता है वहां जीव ऐसा नहीं होता । चेतना को मुख्य लक्षण होने से जीव जानने और देखने की शक्ति रखता है । यह जीव आत्म-स्वरूप को ग्रहण करके दर्शनस्वरुपी एव बाह्य पदार्थों को ग्रहण करके ज्ञानस्वरुपी कहलाता है । ज्ञानरुपी होना जीव का मुख्य राक्षा है । यद्यपि एकेन्द्रिय जीव से लेकर मुक्ता माओं तक जीव में हीनाधिक ज्ञ न पाया जाता है । __यद्यपि अन्य पदार्थों की भाँति जीव प्रत्यक्ष दृष्टा नही तथापि वह स्वानुभव प्रमाण से ही जाना जा सकता है । यह जीव इन्द्रियों के माध्यम से रूप रस आदि का ज्ञान या संवेदन प्राप्त करने के बावजद उससे नितांत पृथक है । जैसे चक्कू से वस्तु कटती है । पर चक्कू और बस्तु भिन्न हैं । इन्द्रियाँ आदि आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराने में साधन भूत हो सकती हैं पर वे स्वयं चैतन्य स्वरुप आत्मा नही हो सकती । इस आत्मा या जीव का कोई रग नहीं है । चर्मचक्षु से देखा भी नहीं जा सकता पर'तु अनुमान और प्रमाण से उसका स्वीकार किया जाता है । संसार में विविध प्रकार के लोग उनकी शारीरिक आदि भिन्नता का अवश्य कारण होता है । यह कारण है कर्म का प्रभाव । (पिछले प्रकरण में इसकी चर्चा हो चुकी है ) धर्म की सत्ता के संर्दभ में यह आत्मा स्वतः सिद्ध हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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