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चलती रहती है । सुख भी मृगमरीचिका सा है । निर'तर परस्पर सबध बंधते और टूटते हैं । जो सुख-दुःख का कारण बनकर क्लेश ही उत्पन्न करते हैं । ऐसे लोक को छोड़कर वह उस सिद्धशिला पर पहुचने की भावना भाता है जहां से आवागमन का दुःख ही छूट जाये | फिर न संबध बंध ना टूटे । फिर दुःखः या सुख की, बीमारी ही न रहे । संभर समुद्र के फेन सा कमजोर और बिजली सा चंचल है । बस ! इसी चंचलता से मुक्त होने की भावना साधक को उर्ध्वगति की ओर ले जाती है । ........
(११) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा : साधक निर'तर उस भावना में प्रतिष्ठित होना चाहता है जहां वह साम्यकज्ञान की प्राप्ति कर सके साम्यरज्ञान की भावना काना या निर तर खेवना करना ही बोध दुर्लभ भावना है । शब्द ही यह स्पष्ट करता है कि दुर्लभ ज्ञान या सच्चाज्ञान प्राप्त करने का चिन्तवन ही बोधिदुर्लभ अनुप्रक्षा है । हमारे जन्म-जन्मांतरों क जमे हुए कुज्ञान या अज्ञान के संस्कार हमें जकडें हैं । उन्ही के कारण हम असत्य को सत्य और अनित्य केा नित्य मान बैठे हैं । नष्ट शरीर को शाश्वत कौर शाश्वत आत्मा के प्रति उदासीन हैं । साधना का वही क्षण सबसे कीमती होता है जब साधक इन उल्टी बातों को सही जानने का प्रयास करने लगता है। उसकी भेद विज्ञान-दृष्टि म्पन्न होते ही वह वस्तुके यथास्वरूप को मानने लगता है । यही जानना और जानकार सत्याचरण के प्रति समर्पित होना ही सम्यकत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर होना है । जैसे के। रौसा जानने का चितवन ही बोधि दुर्लभ है । इसी ज्ञान से वह निजात्म-स्वरुप की ओर देखने लगता है । इसी ज्ञान की उपलब्धि से संवर और निजग के भाव लागत हैं । इन्हीं से चरित्र धारण करने की भावना पनपती है । बस
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