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________________ धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में प्रवेश करता है । मोक्षमार्ग के थस्-किंचित अवरोध भी वह शनैः--शनैः दूर करने लगता है । .. (९) नीर्जरानुप्रेक्षा : आस्नव के रूकने का नाम संवर है । मंबर या रुकावट के होते ही निर्जरा या नष्ट होने की क्रिया स्वयमेव प्रारंभ हो जाती है । नये कर्मों का आवागमन, साधक की बढ़ता और सचित कर्मा को तिरोहित करने की बढ़ भावना से चित कर्म वैसे ही खिरने या झड़ने लाते हैं जैसे आग लगने पर सूखे पत्ते जलने लगते हैं । साधना की ज्योति के प्रज्जवलित होते ही कर्मो का क्षय अधिकार की भांति होने लगता है । अनिर्वचनीय आनद साधक को मिलने लगता है । सच्चे आनद का स्रोत बहने लगता है । नई ऊर्जा नया विस्फोट एक नई क्रांति की ओर ले जाती है । वेदनाओं का शमन या निराकरण होना ही निर्जरा है साधक साधना में इतना दृढ हो जाता है कि उसे शीतादि परिषहों का भी ध्यान नहीं रहता । वह शरीर लोक से आत्मलोक में रमण करने लगता है । कर्णा की निजग ही उसे 'कारा' या निराकार बनाती है । यही चरमशुद्धि मोक्ष के योग्य बनाती है । मैं अपने कर्मा का भय या निजरा करके परमपद को प्राप्त कर यही भावना साधक को निर'तर मानी चाहिए । - (१०। लोकानु प्रक्षा : माक्ष पथ का पथिक तिर'तर इस संकल्पना का ध्यान करता है कि इस चौदह राजू-मनुष्याकृति के लोकाकाश में यह जीत्र युग-युगांतर से जन्म-मरण की क्रियाये कर रहा है । कभी शुभ योग से देव या मनुष्य बना तो कभी अशुभ योग से पस-नारकी बना । ऐसे लोक के प्रति वह धिक्कार भाष भाता है। यह वह लोक है जहाँ सुख दुःख की आंखमिचौनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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