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________________ जैनधर्म की यही तो विशेषता है कि वह संयम एव' समता पर जोर देकर कहता है कि संयम रखने से वासनायें या भोग विलास की लिप्सा नहीं जागेगी और समताभाव होने से आवश्यकता की पूर्ति का प्रश्न स्वय' हल हो जायेगा-परिणामतः न साधन सम्पन्न को गलत राहों पर चलना होगा और न गरीबों को पेटके लिए चौर्य वृत्ति का आश्रय लेना होगा। जिस प्रकार हिंसा-अहिंसा का अतिसूक्ष्म वर्णन किया गया हैं उसी प्रकार इस चौर्यवृत्ति का भी सूक्ष्म वर्णन प्रस्तुत है। चोरी चाहे छोटी हो या बड़ी, हेय और त्याज्य मानी गई है। चोर सदैव दंडनीय रहा है । कितनी सरल भाषा में समग्र व्याख्या प्रस्तुत है-“कषाय भाव युक्त होकर किसी की वस्तु को उसके द्वारा दिए वगैर या आज्ञा बिना ले लेना चोरी है । किसी की रखी हुई या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना भी चोरी है ।" मै समझता हूँ कि इस व्याख्या में चोरी के सभी लक्षण समाविष्ट हो गये हैं । यहां मन-वचन कर्म से ही चोरी के त्याग का निर्देश है। धर्म तभी महत्वपूर्ण बनता है जब वह व्यक्ति और समाज को सुधारने में सक्षम हो । समाज व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में सहायक हो | कम तौलना काला बाजार, कर चोरी आदि ऐसे तत्व हैं जो समाज को असंतुलित बनाते हैं। अतः चौर्यकर्म में गिने गये हैं । जो लोग यह मानते हैं कि ऐसा गलत मार्ग से ले आया हुआ धन दान करने से शुद्ध या उपयोगी बन जाता है वे लोग भ्रम और मिथ्यात्व में जीते हैं। मेरी दृष्टि से ऐसा कार्य धर्म कार्य को दूषित करता है । अन्य लोगों को प्रेरित करके समाज को भ्रष्ट व धर्म को कलंकित करता है। ऐसे पैसे के दान से पुण्य मिलने की आशा रखने वाला आंखो वाला अंधा ही है । किसी भी 'प्रकार की चोरी करने वाले की समाज और राष्ट्र में कोई मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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