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________________ २१ भागवत काल तक भरत का अस्तित्व स्थापित हो चुका था । एव' सर्वस्वीकृत भी बन गया। डॉ. भगतशरण उपाध्याय उसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि ऋषभ और भरत दोनों के वंश और कुल का संबंध मनु अथवा स्वयंभू पुरुष से था : वे जो वंशावलि प्रस्तुत करते हैं तद्नुसार मनु का पुत्र प्रियत्रत, प्रियव्रत का पुत्र नाभि, नाभिका ऋषभ और ऋषभ के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ वही भरत थे । इन्हीं नाभिराय का एक नाम अजनाभ भी था । उसी के नाम पर कालांतर में इस देश का नाम अजनाभ पड़ा । इस अजनाभ का नाम उसके पौत्र भरत के नाम के साथ जुड़कर भरतखंड बना यद्यपि इस पर सभी विद्वान एक मत नहीं । कई दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम से भानखंड को स्वीकार करते हैं । अनेक विद्वान इसको अधिक पुष्ट मत तहीं मानते । वें दुष्यंत शकुंतल के पुत्र भरत के साथ भरत खंड का संबंध होना अस्वीकार करते हुए वायुपुराण के. आधार पर ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष या भरत खंड की पुष्टि करते हैं । सिंधुनदी से प्राप्त योगमूर्ति एवं ऋगवेद की अनेक ऋचायें जैनधर्म की प्रागैतिहासिकता एवं प्रावैदिकता वहिसाक्ष्य के रूप में मुष्ट करती हैं । ऋगवेद में ऋषभदेव एवं अरिष्टनेभि का उल्लेख महान एवं साधु प्रकृति के महापुरुष के रूप में हुआ है । भाग - वत एवं विष्णुपुराण में भी ऋषभदेव की कथा का वर्णन हैं । जैनधर्म, बौद्धधर्म से प्राचीनतर है इस सत्य का शायद ही कोई अस्वीकार करे | यह वैदिक धर्म जितना ही प्राचीन है । स्व. राष्ट्रकवि दिनकरजीने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "संस्कृति के चार अध्याय " में इस तथ्य का स्वीकार किया है । भारतवर्ष का नामकरण ऋषभ पुत्र भरत के नाम से ही वे मान्य करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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