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________________ २० पुराग में ऐसा उल्लेख स्पष्ट है । उसमें उल्लेख है किं करावृक्ष के अवश्य होने पर लोग आकुल-व्याकुल हो गये नाभिराय ने उन्हें अपने पुत्र साधु ऋषभ के पास भेजा । उस समय ऋषभ ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा कि तुम सब संसार के कर्म करते हुए अपने जीवन को दिव्यता प्रदान करो । साथ ही उन्हें खेती करने का तरीका बताया । विविध वनस्पतियों का परिचय-उपयोग बताया । एसा ही उल्लेख स्वयंभूस्रोत्र में भी है । आदियुग से भारतीय चिंतन धारा में दो विविध विचार शृखलाये विकसित हुई । एक परंपरावादी और दूसरी पुरुषार्थवादी । प्रथम द्वप्टिकोण में ब्रह्म एवं प्रारब्ध आदिका प्राधान्य रहा जबकि दूसरा दृष्टिको ग विकासशील या श्रमणसंस्कृति का रहा । इसमें आचरण एव' कर्म का प्राधान्य रहा । इन टि भिन्नता के उपरांत भी दोनों विचार श्रेणेयां अन्योन्य की पूरक ही रहीं कभो विरोधी नहीं बनी । प्रथम गैदिक संस्कृति का उद्गम पंजाब एव पश्चिमी उत्तरप्रदेश रहा एव श्रमण संकृति को उद्गम आसाम, बंगाल बिहार मध्यप्रदेश एवं राजस्थान रहा । श्रीमद्भागवत में भी जैनधर्म के आदि प्रवर्तक भ. ऋषभदेव के जीवन का विस्तार से वर्णन है। भागवत में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में उल्लेख है कि जिसके शुभ नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ वें भरत ऋषभ ाथ . सौ पुत्रों में ज्येष्ट थे । ___ "येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः गुण-यातीत यनेंद' व भारतनिति यपदिशन्ति ।" श्रीमद् भागवत के ११ वें मर्ग के द्वितीय अध्याय के १७ वे श्लोक के अनुसार भरत परम भागवत थे | परमभागवत, उनका धर्म परायण होने का निर्देश करता है यह भी स्वीकार्य हुआ है कि .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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