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प्राणी सन्यकत्व धारण करके तपस्या के स्त्रसाधन द्वारा दुष्ट कर्मो का नाश या क्षय करके मुक्त आत्मा बन सकता है ।
जैन तीर्थकरों की पूजा करते हैं । देव शास्त्र - गुरु की आराधना भक्ति करते हैं । इस दृष्टि से उनका आस्तिक भाव स्पष्ट है । वे नास्तिक कैसे कहे जा सकते हैं ? नास्तिक वह है जो आत्मा को न मानें। कुकर्मों के प्रति हीं आकृष्ट रहे । भौतिक भागों को ही स्वय ं माने । जिसमें दया क्षमा, सहिष्णुता आदि गुण न हे ऐसी बातों का समर्थन जैनधर्म में कहीं नहीं है । फिर वह नास्तिक कैसे हो गया ? किसी द्वारा कहे गये भगवान या पुस्तक को न मानना यह नास्तिकता की कसौटी कैसे हो जाएगी ? यह तो वैसे ही हुआ कि मेरे पिता को जो पिता नही मानेगा वही मेरा दुश्मन ।
संसार की रचना के विषय में जैनधर्म संपूर्ण स्पष्ट है । जीव अनादिकाल से पुद्गल का सम्पर्क प्राप्त करके इस संसार की रचना करता है । सात ( नव) तत्वों के आधार पर इस संसार का चक्र निरन्तर चलता रहता है । नित नवीन कर्म बाँधते रहते हैं - पुराने कर्मों की तपस्या आदि द्वारा, क्षय, उपशम या क्षयोपशत होता रहता है । सत्-ज्ञान द्दष्टि के उत्पन्न होते ही नये कर्मों का आना (आस्रव) बन्द होने लगता है । वे रुक जाते हैं । ( संवर होता है) तपस्या की अग्नि में वे नष्ट होने लगते हैं । उनकी निर्जरा होती है । जब आत्मा संपूर्ण निर्मल- राग द्वेष आदि से मुक्त हो जाता है । मात्र ज्ञान या केवल ज्ञान उसे प्राप्त होता है । ऐसे आत्मा संसार के आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यद्यपि इस मोक्ष की कल्पना या संभावना की चार्वाक को छोडकर सभी भारतीय दर्शनों ने स्वीकार की है । उसके प्रयत्नों को महत्व दिया है । इस प्रकार मोक्ष प्राप जीव स्वयं भगवान बन जाता है। जैनधर्म
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