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________________ १२७ प्रक्षाल क्यों ? सामान्यतः आजका बुद्धिवादी यह प्रश्न कर सकता है कि प्रक्षाल क्यों किया जाता है । मूर्ति को नहलाना कौनसा पुण्य है परन्तु इस प्रक्षाल का अर्थ न तो मूर्ति का नहलाना है और न ही उसको चमकीला बनाये रखना है । परन्तु प्रक्षाल की क्रिया को भावनागत इस प्रतीक के माध्यम से समझाया जा सकता है कि अभिषेक द्वारा भक्त स्वयं के कर्ममल रुपी रजकणों को भक्ति रुपी जल से साफ करता है । अनन्त कर्मवर्गणाओं से आच्छादित या मलीन आम्मा को ही अंतरम में साफ करता है । क्रिया उसकी बाह्य होती है-पर चितवन आत्मा में इस प्रकार चलता है । साथ ही तीर्थकर के जन्मकल्याणक को मूर्त स्वरूप में निहारता है । वह उस जन्माभि येक का साक्षात्कार करता है जिनमें नवजात शिशु तीर्थ कर को इन्द्रादिक देव पांडुकशिला पर ले जाकर उनका अष्ट सहस्र कल लाओं से अभिषेक कर धन्यता का अनुभव करता है । भक्त पुजारी भी इसी भावना से प्रक्षाल या अभिषेक कर धन्यता का अनुभव करता है । वह भावना करता है कि उसके कर्म-मल धुल रहे हैं । यह अभिषेक जल के उपरांत दूध, दही, घी एवं इक्षुरस से मिलाकर पंचाभिषेक रुप में भी किया जाता है । व्यवहार से मूर्ति का अभिषेक होता है-पर, निश्चय से आत्मा का ही प्रक्षालन होता है। पूजा के प्रकार : पूजा के मुख्यतः दो प्रकार माने गये हैं- १, व्यवहार पूजा २. निश्चय पूजा । यहां हमारा प्रतिपाद्य व्यवहार पूजा एवं विधि से है-अतः उसी की चर्चा करेंगे । हाँ ! निश्चय पूजा से इतना तो जान ही लें कि व्यवहार पूजा में स्थिर साधक उत्तरोत्तर आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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