________________
पुजारी अर्थात भगवान के गुणगान उनमें क्रमशः तल्लीन होता हुआ आत्मार्थी मुमुक्ष भगवानमय और आगे बढ़कर आत्ममय बनता जाता है । पुजन का उद्देश्य कभी भी भौतिक सुखां की उपलब्धि नहीं होती-कयों कि मोक्ष-स्थित तीर्थकर जो मुक्तात्मा हैं वे इस लेन-देन से सर्वथा मुक्त हैं । परंतु, पुजा से जो सबसे बड़ी उपलब्धि है-वह है आत्मशांति । पुजक कृत, कारित और अनुमोदना के साथ गिरंतर वीतराग के गुणों का चितवन करते हुए, इस आत्मा को निरन्तर दुःखी बनाने वाले कगयों को मंद से मन्दतम् बनाने का प्रयास करता है । दूषणों का विलय करता है । करुणा- मैत्री से प्लावित बनता है-प्राणीमात्र के प्रति दयावान बनता है । इन गुणों के प्रकट होने पर उसे मानों सर्वस्व मिल जाता है । इन मानसिक शांति के सामने ससार का धन क्या बराबरी कर सकता है ! पूजा से अशुभ कर्मों का क्षय होता है । शुभ अर्थात परोपकारी भाव जन्मते हैं । सञ्चा पुजारी ही आज की विश्वशांति और आत्मशांति प्राप्त कर सकता हैं । पूजा विधि :
मर्वप्रथम श्रावक को प्रातःकाल नित्यक्रिया से निवृत्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण कर, अष्ट मंगल द्रव्य लेकर मन्दिरजी में जाना चाहिए । मन्दिर जाने की भावना से ही उसके हृदय कमल पर स्थित पंचपरमेष्ठी के ध्यान की कलियाँ मुकुलित हो जानी चाहिए । मन्दिर में पहुँचकर पाद-प्रक्षाल के पश्चात ऊपर निर्देशित विधि के अनुसार दर्शन करने के पश्चात पूजन को तैयार होना चाहिए । पुजा के वस्त्र स्वच्छ, संभव हो तो खादी के सफेद या केशरी रंग के होने चाहिए | यह अनुभव-सत्य है कि वस्त्रों का मनोभावों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। शुद्ध वस्त्र सात्विक भावनाओं के जनक हैं। इस प्रकार तैयार होकर सर्वप्रथम प्रक्षाल वरना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org