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________________ १२० me she iho th संसार में भटकाने वाले तत्व हैं । जिन्होंने अपनी तपस्था द्वारा आत्मा का हनन करने वाले इन दुश्मनों का विनाश का दिया है । अर्थात जो साम्य दृष्टा, संसार से मुक होने की क्षमता वाले हैं । उन्हें ही अरिहंत कहा गया है । वे ही तपस्वी नमस्कार के योग्य हैं । तीर्थ कर (अरिहंत भावान) की बड़ी सरल व्याख्या की गई है। जो संसार सागर को स्वयं पार करते हैं और अन्य जीवों का पार कराते हैं । जिनका केवलज्ञान (मात्रज्ञान प्राप्त हो गया है। वे ऐसे श्रेष्ठ मुनि होते हैं जो संसार में भटकते लोगों को मोक्षमार्ग का दर्शन कराते हैं, उस ओर उन्मुख करते हैं । अठारह दोषों से मुक्त होते हैं । जिनके पंचकल्याण मनाये जाते हैं । जो नियमतः घातिया -अघातिया कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करते हैं । ऐसे मोक्षगामी तीर्थ करों को नमस्कार करते हैं । हम उन महान आत्माओं के गुणों की पूजा करते हैं जिन्होंने जन्म-मरण-रोग पर विजय प्राप्त कर ली है । जिनका चतुर्गति--भ्रमग नष्ट हो गया है। जिन्होंने पुण्य और पाप को उत्पन्न करने वाले कर्मों का संपूर्ण क्षय कर लिया है । शास्त्रीय भाषामें कहें तो जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अंतराय कर्मों का नाश किया है । जिन्होंने क्रोध, मान, माया और लाभ कषाओं को जीत लिया है । इन्हें जीतकर जो 'जिन' बने हैं । तात्पर्य कि जिनकी मूर्ति को देखते ही हमारे मन में त्याग, वैराग्य, एवं सवृत्तियों का भाव पैदा हो । एसे अरिहंतों को नमस्कार है । दूसरे चरण में ‘णमा सिद्धाण'' कहते समय हम अरिहंत के ही उस स्वरूप का स्मरण और वंदन करते है जिन्होंने अष्ट कर्म जीतकर पूर्ण सिद्धत्व प्राप्त कर, मोक्ष में निवास किया है । अर्थात जब अरिहंत सिद्धशिला पर प्रस्थापित हो जाते हैं-तब सिद्ध बन जाते हैं । वे अशरीरी हो जाते हैं । सिद्धही निरंजन निराकार हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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