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________________ ११८ अशुभ कर्म = बंधे तो उसमें ऐसे अनर्गल भाव जाम न लेते । मंदिर और मूर्ति की कल्पनाही हममें एक नए वातावरण का बोध भर देती है । मंदिर, अर्थात देवस्थान । जहाँ गृहस्थ जीवन की कोई झंझट नहीं । ज्ञान-वैराग्य का स्रोत जहाँ प्रवाहित है । मनकी शांति के लिए जहाँ वातावरण की शांति है । पवित्रता का जहाँ साम्राज्य है । हम जिस शांति, वातावरण का घर में नहीं पो सकते वह मंदिर में मिलती है । अतः मंदिर आराधना का एक केन्द्र बन जाता है । इसी प्रकार मूर्ति को देखकर हमें उन महापुरुषों के गुण, लोकोपकारों एव आमोपकारी कार्यो का स्मरण होता है । विशेषकर जनमूर्तियां ही विश्व में ऐसी हैं जो पूर्ण योग मुद्रा में प्रतिष्ठित होती हैं । जिनका पमासन होकर पूर्ण स्थिरता से बैठा होना-दृष्टि का नाशा पर होना एवं चेहरे पर प्रसन्नता का भाव होना बड़ा ही मनोहारी रुप होता है । एसी योगमुद्रा से आप देख सकते हैं कि पांच हाथ की उगलियों का निर'तर शरीर के साथ जुड़ो रहना एव चित्त की एकाग्रता यह बताते हैं कि मनुष्य में निरंतर उत्पन्न ऊर्जा शरीर में ही डायनेमा की भांति उत्तरोत्तर बढ़ रही है । हम जिस ऊर्जा की बातें करके, हलन चलन आदि जीवन के व्यवहार द्वारा नष्ट कर रहे हैं वही ऊर्जा इन तरवियों ने केन्द्रित करते वह शक्ति प्राप्त कराली जिससे वे अनेक बाह्य कष्टो में भी ध्यान में आराधना से भी हिमालय से दृढ़ बने रहे । उन्हें बाह्य उपसर्गो तक का पता न चला । कब शरीर पर बेलें चढ ग कब जीवों ने घर या घोंसले बना दिए, कब सियारिनी शरीर को खाती रही या का भयंकर आंधी तूफान का उपद्रव होता रहा - उन्हें पता ही नहीं चला । क्योंकि वे ते। अन्तर की ऊर्जा के धनी आत्मा में ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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