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________________ आठ मद, छ में इसी लिए तीन मूढ़ता, अनायतन और आठ दोषों को मिला कर कुछ २५ सम्यग्दर्शन के दोष माने गए हैं । १०६ वर्तमान की भाषा में कहें तो सम्यग्दर्शन प्राप्त व्यक्ति कषाय रहित, सर्वजीवों के प्रति दयालू, निराभिमानी तटस्थ एवं सच्ची आराधना में लगा जीव है । भगवती आराधना, मोक्षपाहुण, भावपाहुड, रयणसार, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव को सर्वाधिक भ्रष्ट माना है । एक बार चरित्रभ्रष्ट मुक्त हो भी सकता है - दर्शन भ्रष्ट कभी मुक्ति नहीं पा सकता - ऐसा विधान है । दर्शन भ्रष्ट का पूर्ण सम्यक्त्व छूट जाने से वह पतन के गर्त में चला जाता है । तीनों रत्ना में इसे प्रधान रत्न गुण माना है । " सत्पुरुषों ने सम्यग्दर्शन को चरित्र व ज्ञान का प्रशम का जीवन तथा तप व स्वाध्याय का आश्रय ( ज्ञानार्णव) इस प्रथम रत्नकी प्रधानता व श्रेष्ठा के गुण शास्त्रों में पाये गये हैं । इसे सभी सुखों का जनक, मोक्ष मार्गका प्रसारक एवं प्रकाशक तत्त्व माना गया है । Jain Education International बीज, यम व माना है । " सम्यग्दज्ञान :- वैसे सम्यग्दर्शन के साथ ही जो साम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है | यहाँ भी ज्ञान सम्यक् या सच्चा मार्ग बतानेवाला अर्थात् यथार्थ ज्ञान की बात का निर्देश है । (ज्ञान से अधिगमज) दर्शन निर्मल बनता है । और निर्मल दर्शन या दृष्टि से उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है । इस दृष्टि से दर्शन और ज्ञान प्रायः साथ साथ ही प्रकट होते हैं । क्षीर नीर को परखने की दृष्टि ही ज्ञान है । ज्ञान में समीचीनता दर्शन के निमित्त से आती है । ज्याही दर्शन मोहनीय के दूर होने पर) क्षय होने पर) सम्यग्दर्शन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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