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________________ १०५ ऐसा व्यक्ति कभी कुमार्ग या कुमार्गी का अनुसरण या अनुमोदन नही करता । वह कभी मोक्षमार्ग से क्युत नही होता । जिसे सम्यग्दर्शन की आँख प्राप्त हुई है ऐसा मुमुक्षु अपने गुणें। की अभिवृद्धि करता है । पर निंदा की वृद्धि उसमें नहीं होती उल्टे दूसरों के दोषों को ढांकने का वह प्रयत्न करता है । मिथ्याटि अज्ञानी जीव कभी सुमार्ग में अन्तराय या विघ्न उपस्थित करते हैं तो उसे भी सम्बदृष्टिजीव दूर करने का प्रयत्न करने सच्चे मार्ग के प्रति उत्पन्न विवाद या निन्दा को दूर करते रहते हैं। स्थितिकरण अर्थात् मूलस्थिति में पुनः स्थापित करना, यदि कोई प्राणी (विशेष कर व्यक्ति) किन्हीं स्वार्थ या परिस्थितियों के कारण सन्मार्ग से डिगता हो, उसका त्याग करता हो तो उसे उससे बचना चाहिए । पुनः सद्पंथ पर आरुढ़ करना चाहिए । वात्सल्य अंग के प्रभाव से ऐसा व्यक्ति साधर्मी मुमुक्षुओं के प्रति स्नेह से भरा होता है । वह अहिंसामयी जिनमार्ग से स्नेह करता है। 'प्रभावना' स्वयं में एवं उत्तम धर्म प्रसार का साधन है । सम्यग्दृष्टि जीव जगत में व्याप्त अज्ञानरूपी अंधकार का दूरकर अहिंसामयी आत्मा के धर्म का प्रसार करता है । ___ सम्यग्दर्शन से युक्त जीव उन आठ अंगों से परिपूर्ण होकर जीवन जीता है । उसमें किसी प्रकार का मद या अभिमान नहीं होता । कभी किसी को स्वयं से हीन मानकर उसका अपमान नही करता । अरे अपने प्रखर विरोधी का भी दिल नहीं दुखाता - माध्यस्थ भाव रखता है । कभी परनिंदा नहीं करता । ज्ञानप्राप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003666
Book TitleJain Dharm Siddhant aur Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain
PublisherSamanvay Prakashak
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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