SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लौकाशाह का ज्ञानाभ्यास ही स्थानक मार्गियों की एकान्त प्रशंसा का प्रधान हेतु है । लौकाशाह ने जैन यतियों के पास रह कर ही लिपिज्ञान सीखा था। इसका भी यत्र तत्र उल्लेख नजर आता है । जो हो ! इससे तो यह सिद्ध होता है कि लौकाशाह को केवल लिपिज्ञान याद था, न कि शास्त्र ज्ञान, और यही इनकी महिमा का कारण हो तो शायद संभव भी है। क्योंकि आज भी संसार में जोनकल करने का पेशा वाले या मुंशी हैं तो उनका परिचय अक्षरों की सुन्दरता से ही दिया जाता है, यहीं क्यों ? इससे उनकी प्रशंसा और कीमत भी होती है। परन्तु किसी साहूकार या राजकर्मचारी की प्रशंसा अक्षरों से हुई हो यह उदाहरण हमारे ध्यान में आज तक भी नहीं आया। वि० सं० १५७८ में लौकागच्छीय यती भानुचंद्रजी ने दयाधर्म चौपाई लिखी है जिनमें लौकाशाह को नाणावटी का व्यापारी लिखा है, परन्तु अक्षरों की सुन्दरता और विद्वत्ता के बारे में तो यतोजी के लेख में कहीं गन्ध भी नहीं मिलती है। वि० सं० १६३६ में यति कान्तिविजयजी लिखित दो पन्नों में लौकाशाह का सब जीवन चरित्र लिखा मिलता है, और स्थानकमार्गी समाज तथा विशेषतः स्वामी मणिलालजी का उस पर पूर्ण विश्वास है, किन्तु लौकाशाह गृहस्थाऽवस्था में ही विद्वान् या सुन्दर लेखक था, इसका जिक्र इन पन्नों में भी नहीं है। वि० सं० १८६५ में स्था० साधु जेठमलजी ने अपने समकित सार नाम के प्रन्थ में लौकाशाह के विषय में बहुत कुछ लिखा है ! आपने लौकाशाह का व्यवसाय नाणावटी का बताते हुए यह भी उल्लेख किया है कि जब उनको अपने नाणावटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy