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________________ ऐ० नो० की ऐतिहासिकता ३०२ स्थानकवासियों के सिर पर गृहस्थ गुरु होने का कलंक धुप सकता है और न अर्वाचीन के प्राचीन ही सिद्ध होता है पर इसके खिलाफ जो थोड़ा बहुत लोगों को विश्वास था वह भी अब शायद ही रहेगा। आगे चलकर पंजाब की पटावलीकार ने देवद्धिगणि क्षमा श्रणजी के ३४ वें पाट अर्थात् भगवान महावीर के ६१ वें पाट पर यतिज्ञानजी को कायम किया है जिनका असली नाम ज्ञान सागर सूरि था और श्रीदेवद्धिगणि तथा यतिज्ञानजी के बीच में जितने आचार्यों के नाम लिखे हैं वे सब के सब कल्पित हैं। किसी एक के अस्तित्व का जरा भी प्रमाण नहीं मिलता है । क्योंकि मिले भी कैसे ? जब ज्ञानजी यति के पूर्व कोई भी मनुष्य मूर्ति विरोधी था ही नहीं तो ऐसा होना सर्वथा उचित भी है। फिर आगे चल कर ज्ञानजीयति से क्रमशः पूज्यसोहनलालजी का नाम लिखा है, किन्तु इस विषय में हम यहाँ कुछ भी कहना नहीं चाहते हैं । कारण ! ज्ञानजीयति के समय लौकाशाह हुए हैं और लोकाशाह के बाद से आज तक इनका अस्तित्व जिस किसी रूप में विद्यमान ही है। स्थानकवासी समाज के साहित्य में अनेक समुदाय हुए और आज भी विद्यमान हैं किन्तु सिवाय पंजाब व कोटा समुदाय के सब अपनी २ पटावलिये लौकाशाह से मिला कर खतम कर लेते हैं, किन्तु पंजाब की पटावली ने लौकाशाह का तो उल्लेख तक भी नहीं किया और उन्होंने अपने को सीधा महावीर प्रभु से मिला दिया है। ऐसा करने में शायद दो कारण हो सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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