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________________ ऐ० नो० की ऐतिहासिकता २९४ तुम जगत् में सच्ची जैनजाति को कलंकित करने चल पड़े हो । मुख्य में तो पं० श्री वीरविजयजी और जेठमलजी के जो सं० १८७८ . में नहीं पर सं १८६५ में शास्त्रार्थ हुआ इसी कारण जेठमलजी ने समकित सार की रचना भी की" यह आपस ही में शास्त्रार्थ हुआ था । सरकार में जाने की बात शाह ने अपनी ओर से नयी गढी है । और इस शास्त्रार्थ में जेठमलजी पराजित होकर पिछली रात में उस नगर से भाग गए थे ऐसी दशा में शास्त्रार्थ का मुकइमा सरकार तक कैसे जा सकता था ? और इसीसे तो शाह के पास कोई सच्चा प्रमाण भीनहीं है जिसका कि वे यहाँ हवाला करते । किन्तु इसका अंतिम और वास्तविक निर्णय करना हो तो श्राज भी आसानी से हो सकता है। क्योंकि श्री० पं० वीरविजयजी तथा जेठमल जी खुद की अविद्यमानता में भी उन स्वर्गीय आत्माओं के रचित प्रन्थ हमारे सामने हैं— केवल आवश्यकता है एक मात्र निष्पक्ष और निर्लेप विद्वान की जो कि इन दोनों महाशयों के स्वीयकृत साहित्य को देख इस बात की घोषणा कर सकें कि अमुक जित और अमुक पराजित हैं । किन्तु हमारा यह सच्चा और पूर्ण हृढ़ विश्वास है कि ऐसा नीर-क्षीर न्याय यदि हो तो श्रीमान पं० वीरविजयजी की उस अप्रतिम प्रतिभा के सामने बिचारे जेठमल जी की किंकर्तव्यविमूढ़ बुद्धि कभी नहीं टिक सकती। क्योंकि जेठमलजी ने मूर्त्तिके खंडन विषय में अपने समकितसार में जो लीचर और कमजोर दलीलें पेश की है उन्हें खुद स्थानकवासी भी आज नगण्य एवं उपहास योग्य मानते हैं । जैसे स्वामी शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों में जैनों की सप्तभंगी याने स्याद्वाद सिद्धान्त का खंडन किया है और आज उन्हीं के अनुयायी कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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