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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता यतियों की निन्दा कर उनको हलका दिखाना ही है, पर समझ में नहीं आता कि ढूंढिये साधु इस प्रकार का षड्यंत्र रच कर अपनी इजत को कहाँ तक बढ़ाना चाहते हैं। और ऐसे निंद्य कृत्यों से अपनी कैसी उन्नति करना चाहते हैं। स्वामी मणिलालजी ने तो अपनी "प्रभुवीर पटावाली" में श्रीमान् लौकाशाह की मृत्यु भी जहर के प्रयोग से होनी लिखी है।
ऐ० नों० पृष्ट १२८ पर शाह ने अहमदाबाद में मूर्तिपूजक और स्थानकमार्गी साधुओं के बीच हुए शास्त्रार्थ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि:
"आखिर संवत् १८७८ में दोनों ओर का मुकद्दमा कोर्ट में पहुंचा। सरकार ने दोनों में कौन सच्चा और कौन झूठा ? इसका इन्साफ करने के लिए दोनों ओर के साधुओं को बुलाया स्था० ओर से पूज्य रूपचन्दजी के शिष्य जेठमलजी आदि २८ साधू उस सभा में रहने को चुने गये और सामनेवाले पक्ष की ओर से वीरविजय आदि मुनि और शास्त्री हाजिर हुथे । मुझे जो याद मिली है उससे मालूम होता है कि मूर्तिपूजकों का पराजय हुआ और मूर्ति विरोधियों का जय हुआ । शास्त्रार्थ से वाकिब होने के लिए जेठमलजी कृत समकितसार पढ़ना चाहिये x x x फैसला १८७८ पौष सुदि १३ के दिन मुकद्दमा का जजमेन्ट ( फैसला) मिला।"
ऐ० नों० पू० १२६ ।
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