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ये सुधारक थे या बिगाड़क पर अपने गुरु धर्मसिंह लवजी श्रादि साधुओं को भी साधु न समझ कर स्वयं बिना गुरु साधु का बाना पहिन कर साधु पनगए।
अब इन तीनों सुधारकों को पारस्परिक ऐक्यता भी जरा देख लीजिये कि शाह के मताऽनुसार तो धर्मसिंह और लवजी, अहमदाबाद में इकट्ठे हुए, तथा स्वामीमणिलालजी के मन्तव्याऽनुसार सूरत में इकट्ठे हुए, दोनों के मताऽनुसार वे अलग २ मकानों में ठहरे, उन दोनों के आपस में छः कोटि और आठ कोटो संबन्धी वाद विवाद हुआ। अब विचारना यह है कि जहाँ इस प्रकार एक दूसरा अपने आपको श्रेष्ठ समम विपक्षी को उत्सूत्र वादी समझे वहां विधारी एकता का निर्वाह किस कदर हो सकता है ? क्योंकि छः कोटि वाला पाठ कोटि वाले को मिथ्यात्वो समझता है तो पाठ कोटि वाला छः कोटो वाले को उत्सूत्रवादी जानता है, और शाह इस भीषण संघर्ष को एकता का चोगा पहिनाते हैं। कहिये इसका क्या रहस्य है ? प्रकृत में शाह के ये तीनों नायक जैन समाज के लिए सुधारक नहीं किन्तु पक्के बिगाड़क ही थे । धर्मसिंहजी के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि धर्मसिंहजी को शिवजी ने गच्छ बाहिर कर दिया था। छः कोटि वाले इसका कारण कुछ और ही बताते हैं। वे कहते हैं कि जब आचार्यों द्वारा अन्य साधुओं को अनेकाऽनेक पदविएँ मिली, तब पदवी के प्यासे धर्मसिंहजी को अपनी एकान्त अयोग्यता के कारण पदवी से कोरा रहना पड़ा और इससे खिन्न हो जब उन्होंने शासन में विरोध डाल उत्पात मचाना शुरू किया तब शिवजी ने गच्छ से बाहिर फेंक दिया, इस विषय का एक प्राचीन पटावलि
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