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प्रतिमा देषि हुइ प्रतिबुद्ध, तिणि ली, चारित्र विशुद्ध, दशवैकालिकनुं करणहार, सिजभव गिरुउ गणधार. ६३ अंग उपासक मांहे देषि, समकितनुं अलावउ पेषि, नव श्रावक सरिसु आणंद, लिई समकित दिइ वीर जिणंद. ६४ परतीरथि जिन प्रतिमा ग्रही, आज पछी ते वंदं नहीं, इणि अक्षरि जाणइ जिनमती, जिनप्रतिमा सही आगइ हती. ६५ छेदग्रंथ अति रुअडउ होइ, कल्पसूत्र सविशेषु जोइ, तिहां बहु सुख बोल्यां सोहिला, पणि दसण जण दर्शन दोहिला.६६ धुरि तीर्थकर जाणे सही, छेहटइ जिनवर प्रतिमा कही, आठ वचन जे विचिलां अछइ, भविअण पूछी लेज्यो पछइ.६७ ए दशनु परमारथ सुणउ, दीठई लाभ हुइ अति घणउं, प्रतिमा पेषी आर्द्रकुमार, क्रमि क्रमि पामिउ मोपं दुआर. ६८ लेषी पुतली देषी भीति, रागवसइ रागीनइ चींति, जिम जिनप्रतिमा पय मन वसइ, तिम समकित अधिकुं उल्लसइ. ६९ छेदसूत्र अक्षर अभिनवा, जिनप्रासाद करावइ नवा, ते सुरलोक जिहां बारमुं, हुइ सुरपति कइ सुरपति समु. ७० मूल सूत्र आवश्यक सार, अंग उपासकमांहि विचार, ठामि ठामि अक्षर छइ घणा, जिनप्रासाद करावा तणा. ७१ छइ गणिविज्ज पयन्नूं जिहां, जिनपूजानां महुरत तिहां, आगइ इम बोल्या जिनराज, ते कुमती नवि मानइ आज. ७२ जंबूदीवपत्ति जाणि, देविदत्थु पयन्न वषाणि, त्रीजइ अंगि वली अवलोइ, जीवाभिगम भली परि जोइ. ७३
१ ख के स्थान ष का प्रयोग किया हे ।
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