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प्रकरण पचीसवाँ
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( १७ ) लौंकाशाह ने जैन धर्म की दया के स्वरूप को ठीक नहीं समझ कर हरेक कार्य में पाप पाप, हिंसा -हिंसा करके श्रावकों के शौर्य पर कुठाराऽऽघात कर उनको डरपोक, कायर, कमजोर बना दिया । जिससे वे दीवानी, फौजदारी इत्यादि अफ्सरी पद से उतर गये और अब अपने तन जन की रक्षा करने में भी असमर्थ बन दूसरों का मुँह ताकने लगे । यह लौकाशाह ने सत्तरहवाँ काम किया ।
( १८ ) जैन धर्म में तीर्थ भूमि की पवित्रता और वहाँ के दर्शन, स्पर्शन से श्रात्म-कल्याण होना बतलाया है। क्योंकि यहाँ असंख्य मुनि मोक्ष प्राप्त करते हुए अन्तिम अध्यवसाय के परमाणु छोड़ गए हैं। वे यात्रार्थ जाने वाले महानुभावों के हृदयों - को स्वच्छ, निर्मल और पवित्र बना देते हैं । यह अनुभव सिद्ध बात है । इसी कारण पूर्व जमाना में एक-एक व्यक्ति ने लाखों करोड़ों द्रव्य का व्यय कर संघ निकाल तीर्थ-यात्रा की और आज भी अनेकों लोग कर रहे हैं। इस कार्य में संसार से निवृत्ति, ब्रह्मचर्य का पालन, व्रत, पञ्चक्खाण का करना, स्वधर्मियों का समागम, गुरुसेवा, तीर्थ-दर्शन और द्रव्य का सदुपयोग आदि अनेक लाभ होने पर भी लौका० स्थान० बिना सोचे समझे बिचारे भद्रिक लोगों को भ्रम में डाल उनको इस पवित्र कार्य से वंचित रख महान् अन्तराय कर्म बांधा है। यह लोकाशाह ने अट्ठारहवाँ काम किया ।
( १९ ) जैन धर्म में ( साधर्मिक ) स्वामि वात्सल्य प्रभावनादि उदार कार्यों को सब से उच्चासन दिया है। क्योंकि इन पवित्र कार्यों से जीव सुलभ बोधित्व प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु
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