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प्रकरण पचीसवाँ
२०४ (१२) जैन धर्म में वासी, विद्वल, अनन्तकाय, (आलू-कांदा इत्यादि) तीन दिन के बाद का आचार खाने की सख्त मना, और महान् पाप समझा जाता था, पर लौंकाशाह तथा स्थानक मार्गियों ने इनका परहेज नहीं रक्खा और सर्वभक्षी बन आप
और आपके भक्तों तथा सम्बन्धी पड़ोसियों को पाप के भागी बनाये । यह लौंकाशाह ने बारहवाँ काम किया।
(१३) ऋतुधर्म का जैनों में बड़ा भारी परहेज रखना बतलाया है, परन्तु लौकाशाह और स्थानकमार्गियों के मत में इसका परहेज नहीं रखने से कई अज्ञ लोग जैन धर्म से घृणा करने लग गए इतना ही नहीं पर तेरह० स्था० श्रारजियों ऋतुमती होने पर भी शास्त्र को छू लेती हैं, और कई भिक्षार्थ भी भ्रमण
* जैन समाज तो प्रारम्भ से ही शासनभंजक लौंकामत को घृणा की दृष्टि से देखता था पर वे लोग विचारा भोले भाले जैनेतर लोगों को भ्रमित कर साधु का वेश पहना देते थे जब लौकाशाह जैनाचार व्यवहार से अज्ञाता था तो जिन जैनेतरों के जन्म से ही सर्वभक्षी संस्कार थे वे जैनाचार में क्या समझे और कैसे पाल सके इधर सर्वप्रकार की छूट भी थी अतएव वह परम्परागत संस्कार आज पर्यन्त भी इन लोगों में विद्यमान है फिर भी जमाना बदलने से और कुछ ज्ञान का प्रचार होने से जो लोग गन्धे रहने में उत्कृष्टता समझते थे वे अब साफ रहना पसन्द करते हैं ऋतुधर्म नहीं पालते थे वे भी इस प्रवृत्ति को बुरी समझते हैं भक्षाभक्ष का भी कुछ खयाल होने लगा है फिर भी हम चाहते हैं कि शासनदेव उन लोगों को सद्बुद्धि प्रधान करे कि वे जैनधर्म का पवित्र आचार पालन करे जिससे विधर्मियों को ऐसा मोका न मिले की वे जैन धर्म पर आक्षेप कर सके
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