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________________ १९५ हिंसा अहिंसा की समा० देती है। किन्तु जब एक मत-पक्षी को दूसरे निरदोष समुदाय की निंदा ही करना है तो वह स्व-पर गुणाऽगुण का विचार क्यों करेगा ? वह तो दूसरे की निंदा ही करेगा जैसा कि नीतिज्ञों का वचन है किः "खलः सर्षप मात्राणि, पर छिद्राणि पश्यति । आत्मनो बिल्व मात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ अर्थात्-दुष्ट व्यक्ति अपने विपक्षी के सरसों जितने अवगुण भी देख सकता है और खुद के बेल-फल जितने बड़े भो अवगुण देखता हुआ भी नहीं देखता है। किन्तु शास्त्रकार ऐसे अधमों को मिथ्या दृष्टि कहते हैं, और आज कल के सुज्ञ समाज में भी उनकी मात्र भत्र्सना ही होती है। इसी समय मूर्तिपूजक समाज में तो एक तरह की जागृति हो रही है और मन्दिरों में उपयोग रखने की निरन्तर पुकार होती रहती है, जिससे अनेक जगह तो आशातीत सुधारा हुआ है और अन्यत् सब जगह भी शीघ्र ही सुधारा होने की संभावना है। किन्तु हमारे स्थानकमार्गी भाई तो हर वक्त दया दया की पुकार करते हुए इतने आडम्बर प्रिय हो गए हैं कि जिनका कुछ ठिकाना ही नहीं है। जहाँ श्राडम्बर है वहाँ हिंसा अवश्य है। इसे देख बहुत से समझदार स्थानकमार्गी तो अब पब्लिक में पुकार करने लगे हैं कि हम में और मूर्तिपूजकों में कोई अन्तर नहीं है। मूर्तिपूजक श्राडम्बर कर अपनी उन्नति समझते हैं तो स्थानकमार्गी आडम्बर कर उन्नति होने की पुकार करते हैं और चलते फिरते पूज्यजी जब एक नगर से दूसरे नगर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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