SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण चौबीसों १९२ वासी अन्न में असंख्य । भले ही त्रसजीव पैदा हो, जीव पैदा हो जाते हैं। उनकी इन्हें परवाह नहीं । २२-विदल-मचा दही, छास में | कई एक लोग तो अभी, जैन खाले हुए मूंग, मोठ, कहलाते हुए भी इस पदार्थ चिणा, चौला आदि के को परिभाषिक रूप में नहीं कच्चे या रांधे पदार्थों के जानते हैं । और जो जानते मिश्रित को विद्वल कहते हैं हैं वे भी लोलुपता के उसमें भी असंख्य जीवो. कारण विद्वल खाते हैं और त्पत्ति होती है जिसे वैज्ञा- टालने वालों की उल्टी निंदा निकों ने सिद्ध करके बताया करते हैं। तथा अपना कर्म है। इसे पदार्थ प्रहण बंधन बाँधते हैं। नहीं करते हैं। २३-प्रायः गरम पानी ठंडा कर | धोवण पीते हैं और उनमें भी के पीते हैं। कालातिक्रम का ख्याल नहीं रखते हैं। २४-तपस्या में भी गरम पानी | धोवण तथा छास (घोल) ही पीते हैं। भी तपस्या में पीलेते हैं। २५-कपड़ा धोते हैं। कई एक तो कपड़ा धोते हैं और कई एक जूत्रों के शय्यास्तर (सेजातर) बनते हैं। २६-रात्रि में चूना डाल कर | कई लोग अब गुप्त पानी रखने पानी रखते हैं और जब लगे हैं। पर कई एक अभी रात्रि में टट्टी या पेशाब | तक भी रात में पानी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy