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________________ प्रकरण तेवीसव १८० प्रथम तो समय का जैसा कि लौंकाशाह ने किया । लौकाशाह जैन शास्त्रों से अनभिज्ञ था, दूसरा उसे ज्ञान नहीं था, तीसरा उसमें इतनी योग्यता भी नहीं थी, कि वह बिगड़ी का सुधार कर सके | इतना ही नहीं पर उसको हानि लाभ का भी विचार नहीं था कि मैं जो कुछ अनर्थ कर रहा हूँ उसका भविष्य में परिणाम कैसा होगा ? इसका उसे तनिक भी ज्ञान नहीं था । जिस शिथिलाचार को लोकाशाह दो हजार वर्षों की अनेक परिस्थितियों के अन्त में जो व्यक्तिगत देख रहा था, वही शिथिलाचार आपके अनुयायियों में थोड़े ही समय में सर्व व्यापक हो गया था । उदाहरणार्थ नीचे के कोष्ठक में देखिये । स्था० कथनानुसार छौंकाशाह के समय में कतिपय जैनयतियों का आचार. १ - उपासरों में स्थिर वास करना । २ - गादी तकिया आदि को रखना । ३ – पालखी में बैठना । ४- चमर, छत्र, चपड़ास रखना । ५ - शिर पर बालों का रखना । ६ - खमासणे वेहरने जाना । - तपं तैलादि में लेना । पैसा Jain Education International लोकशाह के बाद १०० वर्षों में लोकाशाह के अनुयायियों का आचार. उपासरों में स्थिर वास करना । गादी तकिया आदि को रखना । पालखी में बैठना । चमर, छत्र, चपड़ास रखना । शिर पर बालों का रखना । खमासणे वेहरने जाना तप तैलादि में पैसा लेना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003664
Book TitleShreeman Lonkashah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherShri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi
Publication Year1937
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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